SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपत्रणा एत्य सवभंगसमासो एसियो होइ ९७६ । एवं पयडिसम्मुकित्तणाए समसाए हाणसकित्तणा समत्ता । १९४. एत्थ सादि-अणादि-धुव-अद्भुवाणुगमो ताव कायव्यो, तम्मि अपरूविदे सामित्स्सावयाराभावादो । तं जहा-सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो भोषादेसमेएण । ओघेण सव्वपदाणि किं सादि. ४ । सादि-अद्भुवाणि । एवं जाव० । ® सामित्तं । १६९५, एत्तो सामित्तं वचाइस्सामो चि पदण्णावकमेदं । ® सामित्तस्स साहणहमिमाओ वो सुत्तगाहाओ | ९६. सुगमं । तं जहा । 5 ९७. सुगम । सत्तादि दसुकस्सा मिच्छत्ते मिस्सए एउक्कस्सा। छादी णव उकसा अविरदसम्मे दु आदिस्से ॥२॥ AAAAAAA" यहाँ पर सब मङ्गोका जोड़ इतना ९७६ होता है-- २४ + १४४-: २६४ १ २४०+ १६८+ ६६+२४-|- १२ + ४-६७६ । इस प्रकार प्रकृतिसमुत्कीर्तनाके समान होने पर स्थानसमुत्कीर्तमा समाप्त हुई। 5६४. यहाँ पर सर्व प्रथम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगम करना चाहिए, क्योंकि इसकी प्ररूपणा किये बिना स्वामित्व अनुयोगद्वारका अवतार नहीं हो सकता। यथा-सादि, अनादि, धूव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा ओघ और भावेशके भदसे निर्देश दो प्रकारका है। ओघसे सब पद् क्या सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ--पूर्व में दस प्रकृतिकसे लेकर एक प्रकृतिक तक जितने पद बतलाये हैं उनमें प्रकृतियोंके परिवतनसे या अन्य कारणसे स्थायी कोई भी पद नहीं है, इसलिए इन्हें ओघसे भी सादि और अध्रुव कहा है। शेष कथन सुगम है। * स्वामित्व ६ ९५. इससे पागे स्वामित्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है। * स्वामित्वकी सिद्धि करनेके लिए ये दो सूत्रमाथाएं हैं। ३९६. यह सूत्र सुगम है। $६७. यह सूत्र सुगम है। * सातसे लेकर दस तकके चार उदीरणास्थान मिथ्यात्व गुणस्थानमें होते हैं, सातसे लेकर उत्कृष्टरूपसे नौ तकके तीन उदीरणा स्थान मिश्र गुणस्थानमें होते * यथा
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy