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और गाथाके उत्तरार्थं द्वारा मकारण कर्मोदयकी सूचना की गई है-पदम्मि गाह्रापच्छद्धे कम्मोदयो सकारण पद्धित्ति घेन्वो ।
वेदक अनुयोगद्वारकी दूसरी सूत्रगाधा है' को कमाए हिंदी इत्यादि । इसके पूर्वार्ध द्वारा स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा और प्रदेश उदीरणाकी सुचना की गई है। तथा इसी द्वारा स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों का प्रवेश सूचित किया है, क्योंकि देशमभाव से इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है। तथा इसके उत्तरार्थं द्वारा मोहनीय कर्मके सभी प्रकार के उदय और उदीरणाके सान्तरकाल और निरन्तर काल तथा नाना जीव और एक जीव विषयक काल और अन्वरकी सुचना की गई है। गायामें दो बार 'वा' पदका प्रयोग हुआ है, अब दूसरे 'वा' पद द्वारा गाथामें नहीं कहे गये समुत्कीर्तना आदि समस्त अनुयोगद्वारों की सूचना की गई है ।
वेदक अनुयोगद्वार की तीसरी गाथा है 'बहुगदरं बहुगदरं से' इत्यादि । इस द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविपयक भुजगार अनुयोगद्वार का विस्तार के साथ निरूपण किया गया है । पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारोंका इसी में अन्तर्भाव हो जाता है ।
मार्गदर्शकोरक अनुक्षेोक्षानी सुकी जाएं कमेदि य' इत्यादि । इस द्वारा मोहनीय कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट रूप प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशविषयक बन्ध, संक्रम लक्ष्य, उदीरणा और सत्कर्मके अल्पबहुत्वकी सूचना की गई है।
इस प्रकार उक्त चारों गाथाओं का वादार्य पष्ट करनेके बाद सर्व प्रथम प्रकृति उदीरणाका विवेचन विस्तारसे किया गया है ।
प्रकृतिउदीरणा
प्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है-मूल प्रकृति उदीरणा और उत्तर प्रकृतिउदीरणा । उत्तर प्रकृतिउदोरणा भी दो प्रकारकी है-एक उत्तर प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थान उदीरणा |
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यहाँ पर शंकाकारका कहना है कि वेदक अनुयोगद्वारके प्रथम गाथासूत्र के प्रथम पाद द्वारा प्रवृत्तिस्थान उदीरणाका ही संकेत किया गया है, इसलिए यहाँ पर उसीकी प्राण करना योग्य है, मूलप्रकृतिउदीरणा और एक उत्तर प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा करना योग्य नहीं है, क्योंकि गाथासूत्र द्वारा उनका सूचन नहीं हुआ है ? समाधान यह है कि देशामर्ष क्रभावसे उनका संग्रह कर लिया गया है, इसलिए जनका यहाँ विस्तारसे कथन करनेमें कोई दोष नहीं है । साधारणतः यहाँ गाथासूत्र के अनुसार प्रकृतिस्यान उदीरणा की प्ररूपणा सर्वप्रथम करनी चाहिए। किन्तु जब तक एकक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा न की जात्र वत्र तक प्रकृतिस्थान उदीरणाको प्ररूपणा नहीं हो सकती, इसलिए वहाँ प्रकृतिस्थान उदीरणाकी प्ररूपणाको स्थगित करके सर्व प्रथम एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा की गई है । वह दो प्रकारकी है— एकैक मूल प्रकृतिप्ररूपणा और एकैक उत्तर प्रकृतिप्ररूपणा ।
मूलप्रकृतिउदीरणा
इस प्रकार इतने विवेचन द्वारा मोहनीयकर्म उदीरणाका प्रास्ताविक विवेचन करके आगे उच्चारणाका आलम्बन लेकर मूलप्रवृतिउदीरणा और एक उत्तर प्रकृतिउदीरणाका यथासम्भव अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर कथन किया गया है। उसमें भी सर्वप्रथम १७ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर मूलप्रकृति उदीरणाका विवेचन किया गया है । वे १७ अनुयोगद्वार ये हैं- समुत्कातना, स्वामित्व, सादि, अनादि,