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________________ अयधवलासहिदे कत्रायपाहुडे [ वेदगो ७ :- सुविधिसागर ६८७. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ० सम्मामि० श्रधं । सम्म० जह० हिदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । अजह० णत्थि अंतरं । सेसपयडी० जह० डिदिउदी० जह० एस० उक० अंगुल अमंखे भागोज - णत्थि अंतरं । एवं पदमाए । बिदियार्दा सतमा ति एवं चेत्र । रावरि सम्म० अता० भंगो। ६८८ तिरिक्खेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि० रिओघं । सोलसक० -भयदुर्गुछा० जह० जह० णत्थि अंतरं । सत्तणोक० जह० द्विदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे ० भागो । अजह० णत्थि अंतरं । पंचिदियतिरिक्खतिय० दंसणतिय० णायमंगो | सेसपयडी० जह० द्विदिउदी० जह० एस० उक० अंगुलम्स असंखे० भागो । अजह० णत्थि अंतरं । वरि जोणिणीसु सम्मं० बिदिय पुढ विभंगो । पंचि०तिरि० अपज० सच्चपय० जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगुलम्स असंखे० भागो । जह० एरिथ अंतरं । एवं मणुसप० । णवरि अजह० जह० ३१० जघन्य स्थितिके उद्दीरकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल के समान है। शेष कथन सुगम है । ६६८७ श्रादेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग बांधके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं हैं । इसीप्रकार प्रथम पृथिवी में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसोप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग अनन्तानुचन्धी चतुष्क के समान है । 1 विशेषार्थ – प्ररूपणा में जो खुलासा किया है उसे और अपने-अपने स्वामित्र को समझकर यहाँ स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । आगे भी इसीप्रकार खुलासा कर लेना चाहिए। $ ६८८. तिर्यों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वका संग सामान्य नारकियों के समान है | सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजवन्य स्थिति उatesोंका अन्तरकाल नहीं है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उद्दीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृट अन्तरकाल अंगुल के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। अजयन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक दर्शन मोहनीयत्रिकका संग नारकियों के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके उदोरकों का जन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमारा है । अजघन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि योनिनीतियोंमें सम्यक्त्वा मंग दूसरी पृथिवीके समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी जवन्य स्थितिके उदीरकों का जघन्यः अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के श्रसंख्यातवें भाग मारा है। अजघन्य स्थिति उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकों में जानना चाहिए। इतनी १. तर प्रतौ अंतरं । एवं जोगिणीसु एवरि सम्म० इति पाठः । す
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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