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________________ उत्तरपट्टि दिखाए एयजीवेण कालो २४३ ५३६. तिरिक्खेसु मिच्छ० स०] उक्क० डिदिउड़ी० ० जह० एयस०, उक्क० तोमु० 1 अणुक० जह० एयस०, उक्क० अनंतकालमसंखेआ पोग्गलपरियट्टा । सम्म० उक० डिदिउदी जह० उक० एयस० । अक० जह० एयस०, उक्क० विणि पलिदो० देसूरणाणि । सम्माम्मि० सोलसक० - लोक० पदमाए भंगो । इरिथवे०पुरिसवे० उक० हिदिउदी० श्राधं । अणुक० जह० एयस०, उक० तिष्णि पलिदो ० मोर्गदर्शक आचार्य श्री सुविधियामर जी महाराज पुण्वको डिपुत्तं । एवं पचिदियतिरिक्खनिए । गवार मिच्छे० के० जह० एयस०, उक्क० सगट्टिदी | णव सं० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पुन्नकोडि धत्तं । वरि प० इत्थवेद० उदी० णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०- सउदी० पत्थि | गा० ६२ ] विशेषार्थ - इनके स्वामित्व में ओघसे कोई विशेषता नहीं हैं, इसलिए ओघ प्ररूपणा के स्पष्टीकरणको ध्यान में रखकर तथा ग्रहांकी अवस्थितिको ख्याल में रखकर यहाँ स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। मात्र मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा भवके अन्तिम समयमें कराने पर इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त करना चाहिए | प्रथमादि छह पृथिवियोंमें अरति और शोककी उदय उदीरणा अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है, इसलिए यहां इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसीप्रकार आगे भी कालको घटित कर लेना चाहिए। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसका अलग से स्पष्टीकरण करेंगे । $५३६ तिर्योंमें मिध्यात्व और नपुंसकबंदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुलपरिवर्तनप्रमाण है । सम्यक्त्वक उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायों का भंग प्रथम पृथिवीके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका भंग श्रोध के समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक पूर्वकोटिथक्त्व प्रमाण है। इसी प्रकार परचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । नपुंसक अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और कष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीचेदकी उदीरणा नहीं है । तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदको उदीरणा नहीं है । विशेषार्थ - भोगभूमिमें नपुंसकवेदी तिर्यश्व और मनुष्य नहीं होते, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्यातकों में नपुंसकवेदको अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल मात्र पूर्व कोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। यह विशेषता आगे भी यथायोग्य जान लेनी चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ही है । १. ता०ती उक्क पुनको रिपुधत्तं इति पाठः । २. ताभ्यक्क० नपुस० इति पाठः । ३. ताप्रती उक्क० तिरिएपलिदो ० पुग्वको दिपुधत्तं इति पाठः ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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