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________________ जयधवालासहिद कसायपाडे प्री सुविद्यासागर जी महोस । दोपहमेकिस्से च जह• एयस०, उक्क वासपुधत्तं । ६१५४, आदेसेण णेरइयसव्वट्ठाणाणं णस्थि अंतरं । एवं सब्बणेरइय० । गर्वा । विदियादि सत्तमा त्ति छ० जह० एयस०, उक्क. सत्त रादिदियाणि | तिरिक्ख-मंदिर तिरिक्खतिय० सम्वट्ठाणाणं रात्थि अंतरं । णवरि पंच उदीर० जह• एयसममा उक्क० चोइस रादिदियाणि । पंचिंतिरि०अपज० सबढाणाणं णस्थि अंतरं। मणुसअपज० सव्वट्ठाणा. जह• एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । देवाद णारयभंगो । एवं सोहम्मादि गवगेवला त्ति । भवण-वाण-जोदिसि० रिदियपुढति भंगो । अणुद्दिसादि जाव सम्वट्ठा ति सध्वट्ठाणाणं णस्थि अंतरं । एवं जाव० । * सपिणयासो। 5 १५५. एत्तो सरिणयासो कायव्यो ति अहियार संभालणवक्कमेदं । ६ एकिस्से पवेसगो दोपहमपचेसगो। प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें दो और एक प्रकृतियों के प्रवेशक जीोका। जघन्य अन्तर एक समय हूँ और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। १५४. श्रादेशसे नारकियोंमें सब स्थानोका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सर नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि दूसरीसे लेकर सातवी पृथिवी तक ! नारकियोंमें छह प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साव , दिन-रात है। सामान्य तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सब स्थानोंका अन्तरकाल नहीं। है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पांच प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यव्च अपर्याप्तकोंमें सत्र स्थानोंका अन्तरकाल नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब स्थानोका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्सर पल्यके असंख्यातयें भागप्रमाण है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसीप्रकार सौधर्म ! कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकफे देवोंमें जानना चाहिए। भवनवासी, न्यन्तर और ज्योतिषी । देवोंमें ढसरी पृथिवीके समान भंग है । अनुविशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब स्थानोंका । अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ- मनुज्यिनियों में क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तरकाल पक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृयक्त्व प्रमाण है, इसीसे इनमें एक और दो प्रकृतियोंके उदीरकोंका उक्त कालप्रमाण अन्तरकाल कहा है। उपशमसम्यक्त्व और उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम ये सान्तर मार्गणा है। इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः सात और चौदह दिन-रात है। यही कारण है कि यहां पर द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकियों में छह प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय श्रीर उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात कहा है। तथा सामान्य तिर्यश्चोंमें और पन्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें पांच प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात कहा है। शेष कथन सुगम है। * सन्निकर्ष । ( १५५. आगे सन्निकर्ष करना चाहिए इस प्रकार अधिकारको सम्हाल करनेवाला यह वाक्य है। * जो एक प्रकृतिका प्रवेशक है यह दो प्रकृनियोंका अप्रवेशक है।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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