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________________ ६१] उत्तरपटिउदीरणाए भुजगारपरूपणा भाग। श्रदेसेण रइय० श्रोधं । णवरि अवत० णत्थि । एवं सव्वरइय०तिरिक्त मणुमयपज्ज० देवा भवणादि जाव वराजिदा चि । मरणसेसु भुज०० श्रवच० सव्वजी केवडि० १ श्रसंखे० भागो । अडि० असंखजा भागा । णवरि संखेखं कायव्वं । एवं चैव सव्वट्टे । णवरि ० माणुसपअ० मरणुसिणी० अ० उदीर० णत्थि । एवं जाव० । ६५ २१०. परिमाणा० दुविहो णि० - श्रोधे० आदेसे० । श्रोषेण भुज० अप्प०(वडि० उदीर० केत्तिया ? अगंता । अवत्त० केत्ति ० १ संखेखा । एवं तिरिक्खेसु । निरिवत्त ० णत्थि । आदेसेण रइय० भुज० अप्प० अवडि०उदी १२० केत्ति ० १ असंखेजा । एवं सव्वणेरइय० - सच्चपचिदिय तिरिक्ख- मणुस श्रपत्र ० देवा भवरयादि से भुज गिरी असा । अवस० के० १ संखेज्जा । मरणुसपज्ज० - मधुसिणी -सव्वदेवेषु सव्वपदा संखेज्जा | एवं जाव ० | हाति ० .० : २११. खेना० दुविहो णि० - श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण भुज० अप्प ०विशेषता है कि इनमें वक्तव्यपदके उदीरक जीव नहीं हैं। आदेश से नारकियो में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियों से लेकर अपराजित तक के देवों में जानना चाहिए । मनुष्यों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव किसने है ? असंख्यात हैं । श्रवप्त व्यपदके उदीरक जीव जितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें सब पदके उदीरक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ २१०. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-- श्रोध और प्रदेश | प्रोसे सुगार, श्रल्पतर और अवस्थितपक्के दोरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । अवक्तव्यपदके उदीरक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदके उदरिक जीव नहीं हैं। शेष मार्गणाओं में सब पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । - विशेषार्थ - भुजगार आदि तीन पद एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें भी होते हैं और उनका क्षेत्र सर्व लोक है, इसलिए यहाँ पर ओघसे इन तीन पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक कहा है । परन्तु वक्तव्य पद उपशमश्रेणिसे गिरते समय ही होता है और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोक के श्रसंख्यातवें भागमभाग है, इसलिए ओघ से अवक्तव्य पदके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यह व्यवस्था सामान्य तिर्यश्चों में बन जाती है, इसलिए सम्भव पदका भंग ओके समान जानने की सूचना की है। मात्र तिर्यों में उपशमश्रेमिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें अवक्तव्यपद सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। गतिमा के शेष भेदोंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें सम्भव सब पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। २१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । श्रघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन क्रिया है ? सर्व
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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