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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गाय ६२] मूलपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपरूवणा २४. अंतराणु० दुविहो णि०–ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उदीर ० जह एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । मणुसतिए मोह. उदी० जहण्णुक० अंतोमु० | सेसगहमग्गरणासु पत्थि अंतरं, खिरंतरं । एवं जाव। ६ २५. णाणाजीवभंगविचयाणु० दुविहो. णि०-ओषेण आदेसेण य । भोघेण मोह० सिया सव्वे जीवा उदीरया, सिया उदीरया च अणुदीरगो च । सिया उदीरगा च अणुदोरगा च ३ । एवं मणुसतिए । आदेसेण णेरइय० मोह० अस्थि विशेषार्थ—ोघसे मोहनीय कर्मकी उदीरणाके कालके तीन भंग हैं---अनादि-अनन्त अनादि-सान्त और सादि-सान्त । अभव्योंके और अभव्यसमान भव्योंके अनादि-अनन्त भंग होता है। जो भव्य जीव उपशमश्रेणि पर प्रथमबार चढ़ कर उसके अनुदीरक होते हैं उनके अनादि-सान्त भंग होता है। और जो जीव उपशमश्रेरिगसे उतर कर पुनः उसकी उदीरमा करने लगते हैं उनके सादि-सान्त भंग होता है। यतः ऐसा जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक इसका उदोरक हो सकता है, अतः इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूसंप्रमाण और उत्कृष्ट काल उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। प्रादेशसे चारों गतियों में जो काल कहा है वह स्पष्ट ही है। मात्र मनुष्पत्रिकमें जघन्य काल एक समय उपशमणिमें उतरते समय एक समय उदीरक होकर जो मर कर देव हो जाता है उसकी अपेक्षा कहा है। २४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश 1 प्रोसे मोहनीय कर्मकी उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूत है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयको उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शेष मार्गणाओं में मोहनीयको उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो जीव उपशमश्रेरिण पर चढ़ कर सुमसम्पराय गुणस्थानमें एक श्रावली कालके शेष रहने पर एक समयके लिए अनुदीरक होकर तथा मरकर देव हो जाता है उसके मोहनीयकी उदीरणाका अन्तरकाल एक समय देखा जाता है और जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ कर सूक्ष्मसाम्परायमें चढ़ते समय एक आवली काल तक तथा उपशान्तगुणस्थानमें चढ़ते और उत्तरते समय अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका अनुदीरक रह कर पुनः उसकी उदीरणा करने लगता है उसके उसकी उदीरणाका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । यही कारण है कि यहाँ पर ओघसे मोहनीयकी उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। यतः श्रोबसे जघन्य अन्तर दो गतियोंके आश्रयसे कहा है जो मनुष्यत्रिकमें नहीं बनता, इसलिए उनमें मोहनीयकी उदीरणाका जयन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। गतिमार्गणाके शेष भेदोंमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसलिए उनमें मोहनीयकी दीरणाके अन्तरकालका निषेध किया है। अन्य मार्गणाओंमें इस व्याख्यान को ध्यानमें रखकर जहाँ अन्तरकाल सम्भव हो उसे उस प्रकारसे और जहाँ सम्भव न हो उसे उस प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए । २५. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश। ओघसे मोहनीयक्रमके कदाचित् सब जीव उदीरक हैं। कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और एक जाय अनुदीरक है। कदाचित् नाना जीव दीरक हैं और नाना जीव अनुदीरक
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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