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________________ १२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो श्रोण मोह० उदीरगा किं सादि० ४ ? सादि० अयादि० धुव० अद्भुवा वा । आदे० र ० मोह० उदीर ० किं० सादि० ४१ सादि० श्रद्ध्वा वा । एवं चदुगदीसु | एवं जाव० । २२. सामित्ता० दुविहो णिद्दे० | ओघे० मोह० उदीरणा कस्स ? अणदरस्स सम्माइडि० मिच्छाइट्टिस्स वा । एवं चदुगदीसु । पंचिंदियतिरिक्खपत्र - मरपुसअप ० श्रद्दिसादि । सव्वट्टा त्ति मोह० उदीरणा कस्स० १ अण्णाद० । एवं जाव० । '१२३. काला० दुविहो शि० - ओघे० आदेसे० | ओघेण मोह० उदीरणा केवचिरं कालादो ? तिष्णि भंगा । तत्थ जो सो सादि-सपञ्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुडुतं, उक० उघड्ढपोग्गलपरिय । आदेसेण रइय० मोह० उदीर० केव० १ जहर कस्सदि । एवं सव्वरइय० सव्यतिरिक्स ० मणुस अपज ० -सच्चदेवा ति । मरणसतिए मोह० उदीर० जह० एयसमओ उकस्से तिरिय पत्लिदोवमाणि पुष्चकोटि कुत्ते महियागिविविधात्री महाराज और आदेश । श्रधसे मोहनीय कर्मके उद्दारक जीव क्या सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव हैं या अध्रुव हैं ? सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव हैं और अध्रुव हैं। आदेश से नारकियों में मोहनीय कर्मके उदीरक जीव क्या सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव हैं या अध्रुव हैं ? सादि और अध्रुव हैं। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य जान लेना चाहिए। विशेषार्थ -- सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक मोहनीयकर्मकी उदीरणा अनादि हैं और सम्यग्दृष्टि जीवके उपशमश्रेणिसे उतरने पर उसकी उदीरणा सादि है। तथा वह अभव्यों की अपेक्षा ध्रुव और भव्यों की अपेक्षा अध्रुव हैं, इसलिए यहाँ पर मोहनीयके उदीरक जीव श्रोघसे अनादि, सादि, ध्रुव और अब कहे गये हैं । किन्तु नरकगति आदि चारों गति मार्गणाऐं सादि और सान्त हैं, इसलिए इनमें मोहनीय कर्मके उदीरकाको सादि और सान्त कहा है। शेष कथन सुगम हैं। २२. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसं मोहनीय कर्मी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि होती है । इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय निर्यन अपर्याप्त मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मोहनीय कर्मकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर होती हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओ मोहनी की उदीरणाका किसना काल है ? तीन भंग हैं। उनमेसे जो सादि-यान्न भंग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपार्थ पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। आदेश से नारकियों में मोहनीयकी उदीरणाका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यत्रिक मोहनीयकी उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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