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________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणा अशिश्रोगहारपरूवणा २५ १४४. देवेसु मिच्य० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कतीसं सागरोवमं । सम्म० जह० एयस०, उक्क तेत्तीसं सागरोवमं । सम्मामि० - सोलसक० -अरदि-सोगमय दुगु० तिरिक्खोवं । इस्सरइ० श्रधं । इत्थवे ० जह० दसवस्ससहस्साणि, उक्क० परणवरणपलिदो० । पुरिस० जह० दसवस्ससहस्सा णि, उक्क० तेत्तीसं सागरो० | भवरणादि जाव वगेवा समितीपिठाक० सगट्टिदी | पुरिस० जह० जह० उक्क० हिंदी । सम्मामि० सोलसक० छष्णोक० तिरिक्खोघं । णवरि भवरण० वाणवें जो दिसि० सम्म० जह० अंतोमु०, उक्क० सगट्टिदी देणा । इत्थवे ० जह० दसवस्ससहस्साणि दसवस्ससह ० पलिदो० अट्टमभागो, उक्क ० तिरिण पलिदो ० पलिदोव० सादिरेयाणि पत्तिदोब० सादिरे ० | सोहम्मीसारय ० इथिवे ० जह० पलिदो ० सादिरे०, उक्क० परणवणं पलिदोवमारिण । सदर - सहस्सार० इस्स - रद्द ० देवोधं । अद्दिसादि सबडा त्ति सम्म० जह० एयस०, उक्क० सगहिदी । बारसक० 0 उदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जाता है । परन्तु ऐसा होने पर भी सामान्य मनुष्यों में इसकी उदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही बनता है। यही कारण है कि यहाँ पर सामान्य मनुष्यों में सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । सामान्य मनुष्यों में तीनों arihaatraar aन्य काल एक समय उपशमश्रेणिमें एक समय तक उस उस वेदकी उदीरणा करा कर मरणकी अपेक्षा कहा है । पीत मनुष्यों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद के उदीरकका तथा मनुष्यनियों में स्त्रीवेद के उदीरकका जवन्य काल एक समय इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । I $ ४४. देवोंमें मिथ्यात्यके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कपाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग सामान्य तिर्यों के समान है । हास्य और रतिका भंग ओघके समान है। स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्य है । पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तक के देवोंमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल क्रससे अन्नमुहूर्त और एक समय है। तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायों के aatraar भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। बीके उदरकका जघन्य काल क्रमसे दस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष और पल्के आठवें भागप्रमाण हैं तथा उत्कृष्ट काल तीन पल्य, साधिक एक पल्य और साधिक एक पल्य है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य काल साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट काल पचवन पल्य है । शतार और सहसार कल्प में हास्य और रतिके उदीरकका काल सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में सम्यक्त्व के उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । ४
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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