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________________ १४० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * उकस्से बेछावसिागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६ ३१७. एत्थ तीहिं पलिदोवमस्सा संखे अभागेहिं सादिरेयत्तं दव्वं । एवमोघेण कालाणुगमो समत्तो । [ वेगो ७ ६३१८. संपहि एदेण सूचिदादेसपरूवणट्टमुच्चारणं वत्तस्साम । तं जहाआदेसे ग्य० २८ २६ जह० एयसमयो, उक्क० तेत्तीस सागरोवमारिण संपुराणापि । २७ २५ २२ श्रोत्रं । २४ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेतीसं सागरो ० देणाणि | २१ जह० अंतोनु०, उक्क० सागरोवमं देणं । एवं सत्तसु पुढवीसु । वरि सगट्टिदी | विदियादि जाव सत्तमा ति २२ जहराणुक्क० एस० । २१ जहरक० अंतोमु० । * उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ _ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मार्गदर्शक : ६ ३१७. यहाँ पर तीन बार पल्यके असंख्यातवें भागोंसे साधिकपना जानना चाहिए। इस प्रकार से कालानुगम समाप्त हुआ। ३ ३१८. अब इससे सूचित हुए आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा - आदेश से नारकियोंमें २८ और २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर हैं । २७, ६५ और २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल चोघके समान है । २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर हैं । इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं तक प्रत्येक पृथिवीमं २२ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, तथा २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवका नरक में उत्पन्न करावे । फिर अन्तर्मुहूर्त में उसे वेदसम्यक्त्वा करा कर अन्त में अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर मिध्यात्व में ले जावें । ऐसा करनेसे २८ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल तंतीस सागर बन जाता है । २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवको नरक में उत्पन्न कराये। फिर अन्तर्मुहूर्त में वेदकसम्यक्त्व पूर्वक अनन्तानुबन्धी agrost विसंयोजना करा कर जीवन के अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर मिध्यात्वमें ले जावे । ऐसा करनेसे २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है । नरक में उपशमसम्यक्त्वके साथ अनन्तानुबन्धीकी वियोजना करानेसे इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त 2राप्त होता है । तथा क्षायिक सम्यग्दृष्ट्रिको नरक में उत्पन्न करानेसे इस प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर प्राप्त होता है। सामान्य नारकियों की अपेक्षा शेष कालका खुलासा सुगम है। प्रथमादि नरकों में अन्य सब काल इसी प्रकार बन जाता है । मात्र एक तो जहाँ जी उत्कृष्ट स्थिति है उसे जान कर २८, २६ और २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कहना चाहिए। दूसरे २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका सामान्य से नरक में जो काल कहा है वह पहले नरक में ही घटित होता है, इसलिए द्वितीयादि f
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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