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________________ वाद्यासागर जा गा०६९] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगदारपत्रणा समयमेतो जहण्णकालो। एवं सेसाणं पि पदाणं जहण्णकालो अणुमग्गियचो, तस्य सम्वस्थ पयडिपराबत्तीए गुणपरावत्तीए मरणेण च जहासंभवमेगसमयोवलंभस्स पडिसेहाणुवलंभादो । संपाहि एदेसिनुकस्सकालपरूषणमुत्तरसुत्तमोइपणं-- * उकस्सेणंतोमुहत्तं । तुं कधं हिस्से पराजदे-इस्थि-णसयवेदोदएण खरगसेढिमारूढस्स वेदपदमहिदीए प्रावलियाविट्ठाए एकिस्से पवेसगो होदि । तदो ताव एकिस्से पवेसगो जात्र सुहुमसांपराइयम्स समयाहियावलियचरिमसमयो ति । एसो च कालो अंतोमुहुत्तपमाणो । १०८. संपाहि दोपहं पवे. बुचदे-पुरिसवेदोदएण सेढिमारूढो अणियट्टिकरणपढमसमयप्पहुडि दोण्हं पवेसगो होतो गच्छद जाव पुरिसवेदपढमहिदी अणावलियपविठ्ठा ति; नत्तो परमेकिस्से पवेसगत्तदंसणादो । एसो च कालो [ अंतोमुहुत्तपमाणो] । १०९. संपहि चदुएहं पवेसग० बुच्चदे--अपुवकरणपविठ्ठम्मि खीणोवसंत दंसणमोहणीयपमत्तापमत्तसंजदेस च भय-दुगुंदाणमुदएण विणा अवट्ठाणकालो सन्युस्कृस्सो चउण्हं पवेसगस्स उकस्सकालो होइ । सो घुण अंतोमुहत्त मेत्तो। एवं पंचएहं छहं .............................. ...... - . .. . . .... ... .... जुगुप्साके प्रविष्ट हो जाने पर विवक्षित पदका जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हो गया। इसी प्रकार शेष पदाफा भी जघन्य काल विचारकर जान लेना चाहिए, क्योंकि उन सब पदोम प्रकृतिके पगवर्नन, गुणस्थानके पगवर्नन और मरणके द्वारा यथासम्भव एक समय कालके उपलब्ध होने में प्रतिषेध नहीं है। अब इनके उत्कृष्ट कालका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। १०७. वह कैसे ? सर्व प्रथम एक प्रकृति के प्रवेशकका कहते है -स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदयसे नपकणि पर चढ़े हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थितिके उदयावलिके भीतर प्रविष्ट होने पर वह एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है। उसके बाद वह सूक्ष्मसाम्परायके एक समय अधिक श्रावलिके अन्तिम समयके शेष रहने तक एक प्रकृतिका प्रवेशक रहता है और यह काल अन्नमुहूर्तप्रमाण है। १०८. अय दो प्रकृत्तियों के प्रवेशकका कहते हैं--पुरुषवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीय अनियुनिकरणके प्रथा समयसे लेकर दो प्रकृतियों का प्रवेशक होकर पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके उदयाचलिमें प्रविष्ट होनेके पूर्व तक वो प्रकृतियोंका प्रवेशक रहा, क्योंकि उसके बाद एक प्रकृतिका प्रवेशक देखा जाता है और यह काल अन्तमुहर्तप्रमाण है। ६१०६. अब चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल कहते हैं-जो जीव अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुआ है ऐसे जीवके तथा जिन्होंने दर्शनमाहनीयका क्षय या उपशम किया है ऐसे प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके भय और जुगुप्साके बिना जो सर्वोत्कृष्ट अवस्थानकाल है वह चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल है जो कि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इसीप्रकार पाँच, छह, _ (
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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