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________________ 7 -. गा० ६२ ] उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए सख्ण्यिासो उदी ० वि० जहण्णा । छष्णीक० सिया उदी० । जदि उदी०, शिय० जहण्णा | एवमेकारसक० । २८७ १६३७. पुरिसवे० जह० द्विदिउदी० चारसक० दण्णोक० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जहण्णा | ३६३८. इत्थवे० जह० ङ्किदिउदी० सम्म० लिय० उदी० लिय० श्रज० श्रसंखे० गुण भ० । चारसक० छणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० ज० संखे० गुणन्म० । ३६३९. इस्सस्स जह० द्विदिउ० बारसक० -भय-दुर्गुछा ० सिया उदी० । जदि उदी०, यि० जहण्णा । पुरिसवे० -रदि० खिय० उदी० लिय० जहएणा | एवं रदीए| एवमरदि- सोग० । जी ६ ६४०. भय० जह० डिदिउदी० बारसक० पंचणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जहण्णा । पुरि पिण्ड पाहणारा दुवाए । ३६४१. सरककुमारादि जाव णत्रमेवजा चि एवं चेव । खवरि इत्थि वेदो णत्थि । पुरिसवे० धुवो कायच्यो । अशुद्दिसादि जाव सच्चट्ठा त्ति सम्म० चारसक० - ० नियमसे उरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। छह नोकषायों का कदाचित् उates है। यदि afteक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार ग्यारह - कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६६३७. पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । ९६३८. स्त्रीवेदकी जचन्य स्थितिका उदीरक जीव सम्यक्त्वका नियमसे नदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक जघन्य स्थितिका उदीरक हैं। चारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक हैं । ६३. हास्यकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् चदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । पुरुषवेद और रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उड़ीरक है। इसीप्रकार रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणा को मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए तथा इसीप्रकार अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। I ६ ६४०. भयकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और पाँच नोकषायका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे जयन्य स्थितिका उदीरक है । पुरुषवेदका नियमस्रे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३६४१. सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ मैवेयक लकके देवोंमें इसीप्रकार सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इनमें श्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । पुरुषवेदको ध्रुव करना चाहिए ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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