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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपरूवणा कर अंतोमु० । सत्त० छराहं जह० एयस०, पंच० जह. अंतोमु०, उक्क० सन्वेसिपोग्गलपरिय। १२८. पंचिंदियतिरिक्खतिए दस० णव० अढ० तिरिक्खोघं । सत्त० छ० are एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० पुवकोडिषुधत्तेणब्भहियाणि। पंच० जहरणुक० अंतोमुः । और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर का समय है, पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उपापुदल परिवर्तनप्रमाण है। विशेपार्थ-तिर्यनों में सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होनेसे इनमें इस प्रकृतियोंके उदोरकका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है । इनमें संयमासंयमका उत्कृष्ट J. काल कुछ कम एक पूर्वकोटि होनेसे नौ प्रकृकियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है, क्योंकि संयमासंयम जीवके नौ प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव नहीं है। किन्तु तिर्यञ्चोंमें आठ प्रकृतियोंकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं बन सकता यह स्पष्ट ही है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके उद्दीरकको उस्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यह सम्भव है कि कोई तिर्याच उपार्थ पुद्गलपरिवर्तन कालके प्रारम्भमें और अन्तमें सात, छह और पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा करे और मध्यके काल मिथ्यादृष्टि बना रहकर इनका अमुदीरक रहे यह भी सम्भव है, इसलिए इनके तीन स्थानों के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम उपार्थ पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है । यहाँ पर दस आदि अन्य सब स्थानोंके उदीरकका जो जघन्य अन्तर बतलाया है वह ओघ के समान होनेसे उसका आँधनरूपणामें खुलासा कर ही आये हैं, इसलिए इसे वहाँसे जान लेना चाहिए । मात्र निर्यश्वामें पाँच प्रकृतियोंका उदीरक ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि संयमासंयमगुणस्थानबाला जीत्र ही हो सकता है, जो भय और जुगुप्साकी उदारणा नहीं कर रहा है। चूंकि इस जीवको भय या जुगासाका उदीरक होकर तदनन्तर पुनः पाँच प्रकृतियोंका उदीरक होने के लिए कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। यही कारण है, कि यहाँ पर पाँच प्रकृतियों के उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। ६१२८, पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका भंग सामान्य तिसंञ्चोंके समान है। सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पाँच प्रकृत्तियों के उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। विशेषार्थ—पश्चेद्रिय तिर्यचत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अपिक तीन पल्य यतलाई है, इसलिये यहाँ पर सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा उक्त तीन प्रकारके तिर्यञ्चोंमें अपनी अपनी पर्यायके रहते हुए पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका अन्तर उपशमसम्यक्त्व सहित संयमासंयमके कालको ध्यानमें रखकर प्राप्त किया जा सकता है और उक्त तीनों प्रकारके नियकोंमेंसे किसी एक तिर्यश्वकी कायस्थितिके भीतर दो बार उपशमसम्यक्त्वका प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ पर उक्त तियञ्चोंमें पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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