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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे ३ १२९. पंचि०तिरिक्खअपा०-मासयपत्र ० अंतोनु० | णव ० जह० एस० उक० तो ० । } मार्गदर्शक : $ १३० मणस्पतिए दूसह जह० अंतोमु०, उक्क० तिरिय पलिदो ० आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज दस्र्णाणि । णवः अड्ड० जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडी देवणा । सत्त० छ० जह० एयस०, उक० तिरिण पलिदो० पुथ्वको डिपुधतेयमहियापि पंच० जह० एयस०, उक्क पुज्नको डिपुध० । चदुरहं दोहमे किस्से ० जह० अंतोसु०, उक्क० पुत्रको डिपुध ० । 2 ६८ [ वेदगो ७ दस० अट्ठ० जह० उक० १२६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक और मनुष्य अपर्याप्तक जीवों में दस और आठ प्रकृतियोंके उदीरक जांबका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं। नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीवका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — दस प्रकृतियोंके उदीरक उक्त जीवों को उनके अनुदीरक होकर पुनः उदीर होने में अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । यहाँ यही नियम आठ प्रकृतियोंके उदीरकों के विषय में भी जान लेना चाहिए, इसलिए तो इन दोनों प्रकारके जीवोमें दस और पाठ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। पर नौ प्रकृतियोंके उदीरकोंके लिए ऐसी बात नहीं है, क्योंकि भयके साथ जो नी प्रकृतियोंकी उदीरणा कर रहा है उसके भयकी उदयव्युच्छित्ति होने पर एक समय के अन्तर से जुगुप्सा की उदीरणा होने लगे यह सम्भव है, इसलिए तो यहाँ पर नौ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और भय के साथ नौ प्रकृतियोंका उदीरक उक्त जीव उसकी उदयव्युच्छित्ति करके अन्तर्मुहूर्त के बाद जुगुप्साका उदीरक हो यह भी सम्भव है, इसलिए नौ प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । $ १३०. मनुष्यत्रिक में इस प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं। नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रथक्त्वप्रमाण है । चार, दो और एक प्रकृति के उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ - दस श्रादि प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर जिस प्रकार श्रोघमें घटित करके बतला आये हैं उसीप्रकार यहाँ पर घटित कर लेना चाहिए। मात्र उत्कृष्ट अन्तर मनुष्यत्रिकी काय स्थिति और अन्य विशेषताओंको ध्यान में रख कर घटित करना चाहिए। यथाइस प्रकृतियोंका उदोरक मिथ्यादृष्टि ही होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होगा, क्योंकि जिसने उत्तम भोगभूमिके प्रारम्भ और अन्तमें दस प्रकृतियोंकी उदीरणा की और मध्य में सम्यग्दृष्टि रह कर इनका अनुदीरक रहा उसके यह अन्तरकाल बन जाता है । युक्तिसे विचार करने पर इससे अधिक अन्तरकाल नहीं बनता, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्यको छोड़ कर अन्य वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यका मर कर मनुष्यों उत्पन्न होना सम्भव नहीं हैं और अन्यत्र मिध्यादृष्टि रहते हुए इस पदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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