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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदारणाए अणियोगद्दारपरूवणा ७८. संपहि आदेसेण मणुसतिए ओषभंगो। गेरइएसु अस्थि दसएहं रणवण्हं अट्टराई सत्तण्हं छण्हं पवेसगा १०,९,८,७,६, { एवं सब्बणेरहय. देवा भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । एवं तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि पंचएहं पि पसगा अस्थि ५। पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त-मणुस०अप्प. अस्थि दसरह णवएहमट्ठएहं पवे० १०,९,८। अणुद्दिसादि जाच सव्वट्ठा त्ति अस्थि णवण्हमट्टराई सत्तण्हं छएहं पवेसगा ९,८,७,६ । एवं जाव० । F७९. एवं हाणसमुक्त्तिणं समाणिय संपहि एदेसु द्वाणेसु पयडिसमुक्तित्तणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ॐ एवेसु हाणेसु पयडिणिसो काययो भवति । ८०. एदेसु अणंतरणिहिवउदीरणाहाणेसु काअो पयडीओ घेत्तृण कदम ट्ठाणमुप्पअदि ति जाणावणहमेत्य पयडिणिद्देसो कायव्यो, अण्णहा तव्विसयगर्गदर्शमसाजापतिपदीधिसागर जी महाराज * एयपयर्षि पवेसेवि सिया कोहसंजलणं वा सिया माणसंजलणं वा सिया मायासंजलणं वा सिया लोभसंजलणं वा। १८१. एदस्सत्यो वुचदे-अस्थि एकिस्से पयडीए पवेसगो त्ति समुक्किचिदं । ७८. अब आदेश प्ररूपणा करते हैं। उसकी अपेक्षा मनुष्यत्रिको ओघके समान भंग है। नारकियोंमें दस, नौ, आठ, सात और छह प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव है--१०, 8,८७, ६। इस प्रकार सब नारकी, सामान्य वेव, और भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्याश्चत्रिकमें भी जानना, पाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें पाँच प्रकृतियोंके भी प्रवेशक जीव हैं ५ । पनेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव है१०,६,८। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें नौ, पाठ, सात और छह प्रकृतियों के भवेशक जीव है-९, ८, ७, ६ । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६u. इसप्रकार स्थानसमुत्कीर्तनाको समाप्त करके अब इन स्थानोंमें प्रकृतियोंकी समुकीर्तना करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं--- * इन स्थानोंमें प्रकृतियोंका निर्देश करना योग्य है। FED. पूर्वमें कहे गये इन उदीरणास्थानोंमें किन प्रकृतियोको लेकर कौनसा स्थान उत्पत्र होता है यह जतलानेके लिए यहाँ पर प्रकृतियोंका निर्देश करना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक सम्यम्झान नहीं उत्पन्न होता । * एक प्रकृतिका प्रवेश करनेवाला जीव कदाचित् क्रोधसंज्वलनको, कदाचित् मानसंज्वलनको, कदाचित् मायासंज्वलनको · और कदाचित् लोमसंज्वलनको प्रविष्ट करता है। ६८१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-एक प्रकृतिका प्रवेशक जीव है यह पहले समु
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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