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________________ पा२] उत्तरपयहिउदोरणाए अणिोगदारपरूवणा १६८९. तं कधं ? असंजदस्स वेदगसम्माइद्विस्स वेदगसम्मत्त-पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणसंजलण-वेदपणदरजुगल-मय-दुगुछाओ पवेसेमाणस्स पढमो चउवीसभंगप्पत्ति वियप्पो १। सम्मामिच्छाइडिस्स समचेण विणा सम्मामिच्छत्त-भय-दुगुलाहि विदियो २ । सासगसम्माइट्ठिम्मि सम्मामिच्छात्तेण विणा अणंताणुबंधिणा सह पुबिल्लपयडीओ घेत्तण तदियो ३ । मिच्छाइडिस्स संजुत्तपढमावलियाए मिच्छरेण सह भय-दुगुछावेदयस्स चउत्थो ४ । तस्सेवाणताणु वेदमाणस्स भएण विणा दुगुबाए सह पंचमो ५ । शुकाए विणा भएण सह लट्ठो ६ । एवमेदे छचदुवीसभंगा एवण्हं पवेसगस्स लम्भति । एत्थ सच्चभैगसमासो चउचेतालसदमेत्तो १४४ । दसरहं पयष्ठीणं पवेसगस्स एकचवीस भंगा। १०. तं जहा-मिच्छत्त-अणंताणु०-पचक्खाणापञ्चकखाण-संजलण-वेददो के:-'आचार्य श्री सेविधिसागर जी महाराजे २२ जुगल-भय-दुगुंछाओ एवं ठविय १११ ! अक्खसंचारं काद्ण चउयीसभंगाण मुधारणा कायच्या । एवं पयडिसमुकित्तणाए भंगपरूवणं कादूण संपाहि युत्ताणं भंगाण AAR ८६. सो कैसे ? वेदक सम्यक्त्व, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, वेद, अन्यतर युगल, भय और जुगुप्साका प्रवेश करनेवाले जीवके प्रथम चौबीस भंगोंकी उत्पत्तिका विकल्प होता है १। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्व के बिना सम्बग्मिथ्यात्व, भय और जुगुप्साके साथ दूसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वके बिना अनन्तानुबन्ध के साथ पूर्वोक्त प्रकृतियोंको ग्रहण कर तीसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है. ३ । संयुक्त प्रथम श्रावलिमें मिथ्यात्यके साथ भय और जुगुप्साका वेदन करनेवाले जीवके चौथा चौबीस मंगोंका प्रकार होता है ४। अनन्तानुबन्धीका वेदन करनेवाले उसी जीवके भयके विना जुगुप्साके साथ पाँचवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है। जुगुप्साके विना भयके साथ छठा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । इस प्रकार नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके छह प्रकारके चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। यहाँ पर सब भङ्गोंका जोड़ एक सौ चवालीस * दस प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके एक चौबीस भंग होते हैं। . यथा-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, संच २ लन, वेष, दो युगल में अन्यतर युगल, भय और जुगुप्सा इस प्रकार १ १ १ स्थापित कर भक्षसंचार करके चौबीस भंगोंकी पश्चारणा करनी चाहिए। इस प्रकार प्रकृति समुत्कीर्तनामें
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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