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________________ गा०६२] उत्तरपयडिद्विदिउदीमाए भुजगारमणियोगदारं अप्प० जह० एयस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि । मम्मामि० ओथं । इत्थिवे०पुरिसबे० हस्यभंगो। णचरि श्रप्प० जह० एयस०, उक्क. पणवपणं पलिदोवमं देणं तेत्तीसं सागगेवमं । अवत्त० णस्थि । एवं भवण-वाणयें । णचरि सगट्टिदी । मिच्छ० अप० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० अप्प० जह० अंतोमु० । इत्थिव श्रध्ध महर्य यसविडिबाट तस्मिाजपलिदो० देसूणाणि पलिदो० सादिरेयाणि । हस्स-रदि० अप्प० जह० एगम०, उक्क० अंतोमु० । जोदिसि० वाणवैतरभंगो। णवरि मिच्छ०-सोलसक. अहणोक. भुज. जह० एगस०, उक० बे समया सत्तारम समया । सोहम्मादि जाव सहस्सारे ति एवं चेत्र । गवरि मगहिदी । सम्म० अप्प० जह० एस०. उक्क, सगहिदी। इस्थिवेद० अप्प० जह० एयस०, उक्क. पणवण्णं पलिदोवमं देसूगळं । सणकुमारादिसु इत्यिवेदो णस्थि । महमारे हस्म-दि० अप्प० श्रोघं । भुजगार स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है। सम्यक्त्वका भंग ऑपके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थिति दीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यग्मिथ्यात्त्रका भंग ग्राघके समान है। स्त्रीचेद और पुरुषवेदका भंग हास्यके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थितिउदीगाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कमसे कुछ कम पचवन पल्य और पूंग लेतीस सागर है। इनकी प्रवक्तव्य स्थिति उदारणा नहीं है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तर देयोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। मिथ्यास्त्र की कल्पतर स्थिति दीरणाका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिलदीरणाका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। स्त्रीवेदकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य और साधिक एक पल्प है। हास्य-रनिकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। ज्योतिषी देवों में व्यन्तरदेवोंक समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायकी भुजगार स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय और सत्रह समय है। सौधर्म आदिसे लेकर सहस्रार कल्पनकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। सम्यक्त्वकी अल्पसर स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। स्त्रीवेदकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है। सनत्कुमादिमें स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है। सहस्रारमें हास्य और रतिकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका भंग प्रषिके समान है। विशेषार्थ जो जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके मरणके पूर्व अरति मौर शोकका बन्ध नहीं होता, इसलिए देवोंमें अरति और शोककी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल सत्रह समय कहा है। इसीप्रकार नारकियोंमें मरफर जो जीव उत्पन्न होता है उसके मरणके पूर्व हास्य और रतिका बन्ध नहीं होता, इसलिए नारकियों में हास्य और रतिकी भुजगार स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट काल सत्रह समय कह पाये हैं। शेष कथन सुगम है।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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