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________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ देसूणा । एवं विदियादि सत्तमा ति। णवरि सगपोसणं । पढमाए खेन । सबपंचिदियतिरिक्ख-सम्बमणुस सब्चपद० लोग० असंखे० भागो सबलोगो बा। णवरि मणुसतिए अवत्त० लोग० असंखे भागो। देवेसु मोह तिषिणपद० लोग० असंखे.. भागो अट्ठ-णवचोद्दम० देखा। एवं सत्र्यदेवाणं । णवरि सगपदाणं सगपोसणं णेदव्वं । एवं जाव० । ६४८४, कालाणु० दुविहो णि०–ोघेण प्रादेसेण य । ओघेण मोह. भुज०अप्प०-अवढि० सन्धद्धा । अवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखेना समया । आदेसेण णेरड्य. भुज. जह० एयस०, उक० श्रावलि. असंखे० भागो । अप्प०-अवष्टि सम्बद्धा । एवं सत्रणेरइय०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देवा जाव सहस्सार ति ।। मार्गश५- विविश्वेमा समपदसामध्यम महायशुसेसु णारयभंगो । णबरि अवत्त० ओघं । मणुसपञ्ज०-मोसणी. अप्प०-अबढि० सम्बद्धा । भुज-अवत्त० जह एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । मणुसअपज० भुज. जह० एयस०, उक्क० आवलि. . और मनालीके चौदह भागोंमसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार दूसरीसे लेकर सातवों पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना- अपना स्पर्शन द्वितीयादि पृथिवियोंके कहना चाहिए। प्रथम पृथिवीके नारकियों में स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सष पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और सब मनुष्योंमें सब पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके, असंख्यातवें भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिको अवक्तव्यपदके उदीरक जीवाने लोकके असंख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवों में मोहनीयके तीन पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातये भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सब देवामें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपने-अपने पदोंका अपना-अपना स्पर्शन ले आना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४८४, कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। श्रादेशसे नारकियों में भुजगारस्थितिके लदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य देव और सहस्रार कल्पसकके देवों में जानना चाहिए। ६४८५. तियनों में सब पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। मनुष्योंमें नारकियोंके समान । भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदके उदीरकोंका काज ओघके समान है। मनुष्य पर्यात और मनुष्यनियों में अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। भुजगार और प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगारस्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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