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________________ १०० अयधवलासहिले कसायपाहुडे [वेदगो ७ २२३. आंदेसेण शेरहय० सम्वत्थोवा भुज प० । अप्प. विसेसा० । अवहि० असंखे० गुणा । एवं सवणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । पंचिंतिरिक्खअपज्ज० सम्वत्थोवा मुज०-अप्प.. पवे० । अवडि० असंखेज्जगुणा । मणुसेसु सब्बत्थोवा अवत्त० उदीर० । भुज० असंखे०गुणा । अप्प० विसेसा० | अबढि० असंखे०गुणा । एवं मणुसपज्ज.. मणुमिणी० । एवरि संखेज्जगुणा कायया । एवं सबढे । परि अवत्त० उदीर० णस्थि । एवं जाव! एवं भुजगारो समत्तो। ॐ पदणिक्खेष-वडीनी कादवानी । $ २२४, एदेण सुत्तेण समप्पियाएं पदणिवेव-वड्ढीणमुच्चारणावलंबणेण परूवणं कस्सामो। तं जहा-पदणिक्वे ति तत्थ इमाणि तिष्णि अणिोगद्दाराणि-समुकित्तरगा सामित्तमप्पाचहुए त्ति । समुकित्तणा दुविहा-जहाणा उक्कस्सा च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०–ोधे० प्रादेसे० । ओघेण अस्थि उक्क० बड्डी उक्क पहाणा उक्क अबापट्टा सहिषयदुःसु नदीमा एवं जावः । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । ६२.३ आदेशमें नारकियोंमें भुजगारप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतर• प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार । सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर .. अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें भुजगार और अल्पतरप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यों में प्रवक्तव्यउदीरफ जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगार उदीरक जीष असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरउदीरक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितउदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणे करने चाहिए । इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यउदीरक जीव नहीं हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसप्रकार भुजगार समाप्त हुआ। * पदनिक्षेप और धृद्धि करनी चाहिए । २२४. इस सूत्रके आश्रयसे मुख्यताको प्राप्त हुए पवनिक्षेप और बुद्धिका उच्चारणाके अवलम्बन द्वारा प्ररूपण करते हैं । यथा-पदनिक्षेपका प्रकरण हैं। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं—समुस्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जधन्य और उत्कष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश | ओघसे उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है। इसीप्रकार धारी गतियों में जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार अनाहारक मार्गरण तक जानना चाहिए । इसीप्रकार जघन्य भी ले जाना चाहिए।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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