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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगहार परूवणा ०-भय $ ४६. आदेसेण खेरइय० मिच्छ० सम्म० सम्मामि अता ०४-इस्स-रदि० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूरणाणि । बारसक० - अरदि- सोग०-३ दुध० जह० उक० अंतोमु० । स ० पत्थि अंतरं । एवं सत्तमाए । एवं पढमाए rasa | वरि सगट्टिदी देखणा | हस्स र दि० जहएणुक० तो ० । २७ २. विशेषार्थ - मिध्यात्व गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल बतलाया है वहीं यहाँ मिध्यात्व उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल लिया गया है। तथा सम्यदर्शनका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल है वहीं यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मियात्यके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल लिया गया है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि कषायों के उदीरकका यथायोग्य उरकत कर लेना चाहिए। मात्र इनके aaraar avय अन्तरकालासमय अहवाल यात्येिक कपायकी तनुगत उदीरणा कारण विशेषसे कमसे कम एक समय तक देखी जाती है। किसी जीव के भय और जुगुप्साकी उदीरणा कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। आगे जो हास्य, रति, अरति और शोकके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय कहा है वह अपनी सप्रतिपक्ष प्रकृतिकी उदीरणा कमसे कम एक समय तक सम्भव होनेसे कहा है । मात्र सातवें नरकमें निरन्तर अरति और शोकका उदय रहता है। तथा वहाँ जानेके पूर्व भी अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका उदय रहता हैं, इसलिए तो हास्य और रतिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है और शतार- सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिका उत्कृष्ट उदय छह महीना तक सम्भव है, इसलिए अरति और शोकके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर छह माह कहा है। स्त्रीवेद और पुरुपवेदका उदय तिर्यों में अनन्तकाल तक न हो यह सम्भव है। तथा इसीप्रकार जो जीव सौ सागर पृथक्त्व कालतक पुरुषवेदी है उसके उतने कालतक नपुंसकवेदी उदीरणा नहीं होगी यह भी सम्भव है. इस लिए तो स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल और नपुंसक वेद के उड़ीरकका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वयमाण कहा है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अनुदीरणा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालतक न हो यह भी सम्भव है, क्योंकि एक तो प्रतिपक्ष वेदका वेदन करनेवाले जीवके इन वेदोंकी उदीरणा नहीं होती। दूसरे उपशमश्रेणि में भी इनकी उदीरणाका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त से कम नहीं बनता, क्योंकि जो इन वेदोंके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके इनकी अनुदीरणा होकर पुनः उदीरणा होने में अन्तर्मुहूर्तसे कम काल नहीं लगता, इसलिए इनके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। किन्तु पुरुषवेदके विषय में यह बात नहीं है, क्योंकि उपशमश्रेणि में इसकी अनुदीरणा होनेपर एक समय तक ही वह इसका अदरक रहे और दूसरे समय में मर कर उसके देव हो जानेपर पुनः पुरुषवेदका उदीरक हो जाय यह सम्भव है, इसलिए इसके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । ४६. आदेश से नारकियोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साके उदीरकका जवन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं। नपुंसकयेद के उदीरकका अन्तरकाल नहीं हूँ । इसीप्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए । इसीप्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जानना चाहिए।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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