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________________ गा० ६२ ] उत्तरपट्टिदिउदीरणाएवढडिदिदी रोगारं चदसंजल० - तिणिवेद० असंखे० गुणहाणि० ओषं । णवरि पज्ज० इत्थवेदो णत्थि । मणुसिणी० पुरिस० स० खत्थि । इस्थिवे० श्रवत० जह० एस० उक० वासपुधत्तं । जहि लम्मासं वासं सादिरेयं तम्हि वासपुधत्तं । मणुस अपज्ज० सव्यपडीणं सच्चपदा० जह० एस० उक० पलिदो० प्रसंखे० भागो । ९८३४. देवाणं पंचिदियतिरिक्खमंगो | णवरि घुस० पत्थि । इरिथवे ०पुरिसवे० अवत्त णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा ति । एवं सणकुमारादि जाव सहस्सारा ति । णरि इत्थिये ० पत्थि । , १८३५. आणदादि णवगेवज्जा त्ति मिच्छ० असंखे० भागहाणि० णत्थि अंतरं । सेसप० जह० एस० उक्क० सत्त रार्दिदियाणि । सम्म० तिष्णिवड्डिदोहारिण अवत० श्रोषं । सम्मामि० श्रसंखे० भागहाणि प्रवत्त० ओघं । सोलसक०मार्गदर्शऋण्णोश्वाशसंवेदी पहिअंतरं । संखे० भागहाणि० जह० एम०, उक० सत्त रादिदियाणि । अवत्त० जह० एस० उक० अंनोमु० । एवं पुरिस० । वरि अवत० रात्थि | ३८७ 0 सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वका भंग ओघ के समान है । चार संज्वलन और तीन वेदकी संख्यातगुणानिके स्थिति का भंग के समान है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्त स्त्रीद नहीं है । मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष प्रथक्त्व प्रमाण है । जहाँ बह माह और साधिक एक वर्ष अन्तर कहा है वहाँ वर्षपृथक्त्व कहना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके सब पदों की स्थिति उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ९ ८३४. देवोंमें पचेन्द्रिय तिर्यखोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म- पेशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पनकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद नहीं है । १८३५. आनत कल्पसे लेकर नौ मैवेयकतक के देवी में मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदichter अन्तरकाल नहीं है। शेष पकी स्थिति के उदीरकोंका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है । सम्यक्त्वकी तीन वृद्धि, दो हानि और श्रयक्तव्य स्थिति उदीरकोंका भंग श्रधके समान है | सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि और वक्तव्य स्थिति के उदीरकों का भंग ओघ के समान है। सोलह कषाय और छह नोकषायकी असंख्यात भागहानिकी स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । संख्यात भागहानि स्थिति के उदीरकों का जन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है | भवकन्य स्थिति उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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