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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो सयभंगो । असंखे० गुणहाणि जह० एयस०, उक० 2 ३८६ तोमु० । चरि वत्त० वासपुचतं । पुरिमवे असंखे० गुणपट्टि हाणि० कोहसंजलणभंगो । 0 * ८३१. आदेसेण णेरइय मिच्छत्त- सोलसक० सत्तणोक० असंखे० भागहारिणअव०ि पत्थि अंतरं । सेमपदा० जह० एस० उक० अंतोमु० | णवरि मिच्छ० असंखे० गुणहाणि प्रवत्त० श्रधं । सम्म० - सम्मामि० सव्यपदा० श्रोषं । एवं सवणेरइय० । : १८३२. तिरिक्स पंचिंदिय तिरिक्खति णारयभंगो | णवरि तिरिणवेद० श्रसंखे भागड़ा० - श्रवट्टि० णत्थि अंतरं । सपदा० जह० एस० उक० अंतोमु० । श्रवत्त० श्रघं । णवरि पज्जत्त० इत्थवेदो गत्थि । जोणिणीमु पुरिसवे ० णवुंस० णत्थि । इस्थिवे अवत्त ० णस्थि । पंचि०तिरि० अपज्ज० सव्वपय० श्रसंखे० भागहाणि अनङ्कि० रात्थि अंतरं । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । ० ३८३३. मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खमंगो | णारि सम्म० सम्मामि० श्रोषं । पीवाय पारा' 10 D स्थितिके उदीरकोंका अधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट श्रन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि इनकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकों का भंग नपुंसकवेद के समान है । श्रसंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षेपृथक्स्वप्रमाण है | पुरुपवेदकी असंख्यात गुग्गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकोंका भंग क्रोधसंज्वलन के समान है । १८३१. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है। शेष पदोंकी स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिके उदीरकों का भंग ओके समान हैं । सम्यक्त्व और सम्यन्मिथ्यात्व के सब पदकी स्थिति के उदीरकों का भंग ओके समान हैं । इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । 1 १८३२. निर्यनों में सब प्रकृतियों के अपने-अपने पदों की स्थितिके उदीरकों का भंग श्रोधके समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक में नारकियों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । शेष पदोंकीस्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य स्थितिके उदीरकका भंग ओोधके समान है । इतनी विशेषता है पर्यातकों में स्त्रीवेद नहीं हैं | योगिनियो पुरुपवेद और नपुंसक वेद नहीं है। स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । शेष पकी स्थिति के उदीरकोंका जयन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । I १८३३. मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यों के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि 17
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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