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________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो जह० पलिदो ० संखे ० भागो । २१ जह० बेसमया, उक्क० दोद्दं पि उबडपोग्गल ० | २६ जह० अंतोमु०, उक० बेला वड्डिसागरो० सादिरेयाणि । २३ पस्थि अंतरं । अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक का जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यात भागमगाए है, २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर दो समय है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थपुद् गल परिवर्तन प्रमाण है । २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त सिपमारण है । २३ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । - विशेषार्थ – कोई २८ प्रकृतियोंका प्रवेशक बंदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त में मिध्यात्वमें जाकर पुनः २८ प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया। इस प्रकार २८ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। कोई जीव उपशम सम्यग्दृष्टि होकर २५ प्रकृतियों का प्रवेशक हुआ। फिर अनन्तानुबन्धीकी त्रिसंयोजनाके द्वारा २१ प्रकृतियोंका प्रवेशक हो अन्तरको प्राप्त होगया । उपशम सम्यक्त्वके काल में ६ आवली शेष रहने पर सासादनको प्राप्त हो दूसरे समय में पुनः २५ का प्रवेशक होगया, उसके २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो अन्तर्मुहूर्त के अन्तर से दो बार वेदकसम्यदृष्टि हो अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करता है उसके २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो अनन्तानुबन्धीका त्रियोजक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन में जाकर प्रथम समय में २२ प्रकृतियों का प्रवेशक होता है । पुनः मिथ्यात्वमें जाकर व अतिशीघ्र वेदकसम्यक्त्व पूर्वक मिध्यात्वव सम्यग्मिध्यास्व की क्षपणाकर २२ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके २२ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। आगे २०, १६, १३, १२, १०, ६, ७, ६, ४, ३, २ और १ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़ाकर और उतार कर प्राप्त होता है। यह उक्त स्थानोंके जघन्य अन्तरका विचार है । इन स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण इन स्थानोंको अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रारम्भ और अन्तमें प्राप्त करानेसे घटित हो जाता है। मात्र यह अन्तर प्राप्त कराते समय जहाँ जो विशेषता हो उसे जानकर कहना चाहिए । २७ प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान सम्ममिध्यात्वकी पहेलना करानेसे प्राप्त होता है और इसकी उद्वेलनामें पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल लगता है, अतः यह क्रिया दो बार उपशमसम्यक्त्वसे गिरा कर करानी चाहिए। ऐसा करने से इस स्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त हो जाता है। कोई द्वितीयोपशम जीव पुरुषवेद के उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ा | अन्तरकरणके बाद वह नपुंसक वेदका उपशम कर २१ के स्थानमें २० प्रकृतियोंका प्रवेशक हुआ और उसी समय मर कर तथा देव हो देव होनेके प्रथम समय में नपुंसकवेदका अपकर्षणकर उसका उदद्यावलिके बाहर निक्षेप किया तथा दूसरे समय में पुनः वह २१ प्रकृतियों प्रवेशक हो गया । इस प्रकार २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर दो समय प्राप्त होता है। अन्य वेदोंके उदयसे भी यह अन्तर प्राप्त किया जा सकता है सो जानकर कथन कर लेना चाहिए । यह २७ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्य अन्तर है । इनका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है जो इन स्थानोंका उक्त कालके आदिमें और अन्तमें अधिकारी बनाने से प्राप्त होता है । जो २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करता है। पुनः जब सम्यक्त्वके काल में एक समय शेष रहने पर सासादन में जाकर दूसरे समय में मिध्यात्वमें प्रवेश करता हुआ २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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