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________________ गा० ६२ ] उत्तरपउिदीरणाए ठाणा एयजीवेण अंतरं १४३ ० तेत्तीस सागरी । एवं भवरणादि जाव णवगेवज्जा ति । खवरि सगहिदी । भवण०वाणयें ० - जोदिसि० २२२१ विदियपुढविभंगो । अणुद्दिसादि सम्बडा ति २८२४ २१ जह० अंतोमु०, उक० सगहिदी० । २२ जह० एयस०, उक्क० अंतोमुडुत्तं । एवं जाव० । * अंतरमणुचिंतियूण ऐवव्धं । $ ३२२. पण सूचिदत्यस्स परूवणमुच्चारणादो कस्सामो । तं जहा - अंतराणु० दुविहो शि० - ओषेण आदेसेण य । श्रघेण २८ २५२४२२२०१९ १३१२ १० ९७६४३२१ पवेसमंतर जह० अंतोन०, उक्क० उबडपोग्गलपरियहं । २७ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । २४, हैं और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तीस सागर I इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ मैत्रेयक तकके देशों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल दूसरी पृथिवीके समान है। अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवामें २८ २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त साप्रामा हरिमान जानाईए । विशेषार्थ – जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं की है ऐसा वेदकसम्यग्दृष्टि जीव देवोंकी उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न होकर अन्त तक वह उसी प्रकार बना रहे यह सम्भव है, इसलिए सामान्य देवोंमें २८ प्रकृतियों के प्रवेशकका उत्कृष्ट काल तेवीस सागर कहा है । मिष्टदेव नौ पैवेयक तक ही पाये जाते हैं, इसलिए इनमें २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। किन्तु ये ऐसे देव लेने चाहिए जो सम्यक्व और सम्यरिमध्यात्वकी सत्ता से रहित होते हैं। जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा वेदकसम्यग्दृष्टि जीव और तायिकसम्यग्दृष्टि जीत्र देवोंकी उत्कृष्ट श्रायु लेकर उनमें उत्पन्न हो यह भी सम्भव है, इसलिए सामान्य देवोंमें २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है ग्रैवेयक तक के देवोंमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें सामन्य देवोंके सामान जानने की सूचना की हैं। परन्तु इसके दो अपवाद हैं। एक तो इन rint प्रथक पृथक है, इसलिए इस विशेषताको ध्यान में रखकर उक्त पदका काल कहना चाहिए। दूसरे भवनन्त्रिक में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका काल दूसरी पृथिवीके समान प्राप्त होनेसे उसके समान घटित कर लेना चाहिए | तथा इतनी विशेषता और जाननी चाहिए कि इनमें २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही बनता है। कारण स्पष्ट है । अनुदिशादिक में २८, २४, २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव ही उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनमें इन पदों प्रवेशकोंकी अपेक्षा काल कहा है। शेष कथन सुगम है । * अन्तरको विचार कर जानना चाहिए । ३२२ इससे सूचित होनेवाले अर्थका कथन उच्चारणा के अनुसार करते हैं। यथाअन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश वो प्रकारका है— श्रघ और आदेश । श्रोष से २८, २४, २४, २२, २०, १८, १३, १२, १०, ६, ७, ६, ४, ३, २ और १ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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