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________________ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणार ठागाणं एयजीवेण अंतरं ३२३. श्रादेसेण णेरइय० २५ २६ २५ २४ जह• अंतोमु०, २७ २२ २१ जह. पलिदो० असंखे भागो; उक० सव्वेसि पि तेत्तीसं सागगे० देसू० । एवं सवणेर० । णवरि सद्विदी देसू० । ३२४. तिरिक्खेसु २८ २५ २४ जह० अंतोमु०, २७ २२ २१ जह पलिदो० असंखे० भागो, उक्क • सव्वेसिमुवड्डपोग्गल० । २६ जह० अंतोमु०, उक्क. तिरिण पलिदो० सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि सन्त्रपदाणमुक्क० २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जयन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त उपलब्ध होता है। तथा जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तापाला उपशम सम्यवस्त्र पूर्वक वेदक सम्यादष्टि हो और यथाविधि अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर काल तक बीच में सम्यम्मिथ्यात्वको प्राप्त हो वेदकसम्यक्त्वके साथ रह कर मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर २६ प्रकृतियों का प्रवेशक हो जाता है उसके २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर प्राप्त होता है। तेईस प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव क्षपणाके समय प्राप्त होता है, इसलिए इसका अन्तरकाल नहीं बनता । इस प्रकार ओमसे किम प्रवेशस्थानका क्या अन्तर काल है इसका विचार किया। ६३२३. श्रादेशसे नारकियों में २८, २६, २५ और २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य मानवशन्तर्मुहर्मक विधीसागर प्रमाविष्टाोपवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवं भागप्रमाण है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सष नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-रम, २६, २५ चौर २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा २७ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जिस प्रकार श्रोघप्ररूपामें स्पष्ट करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी जान लेना चाहिए । जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अरतरसे दो बार उपशम सम्यक्त्व के साथ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पूर्वक सम्यक्त्वके साथ २१ प्रकृतियों का प्रवेशक और सम्यक्त्वसे च्युत हो सासाचनमें आकर २२ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण प्राप्त होनेसे इन स्थानोंका जघन्य अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। ओघसे नरकमें जो सब प्रवेशस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है सो यह प्रारम्भमें और अन्त में उस उस स्थानके प्राप्त करानेसे ही प्राप्त होता है। प्रथमावि नरकोंमें उक्तं सब प्रवेशस्थानोंका जघन्य अन्तर तो सामान्य नारकियों के समान ही है। मात्र उत्कृय अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिको ध्यानमें रख कर घटिव करना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ उसका अलग अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है । ३२४. तियश्चोंमें २८, २१ और २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, २७, २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा इन सष स्थानों के प्रवेशकका उत्कृष्ट भन्तर उपाधे पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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