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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बेगो. ६८. अंतमार्गदु विहमणि-पोषणाादसेडी पोधिग अट्ठावीसपयडीणं उदीरणा णस्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० जह० एयस०, उक्क पलिदो० असंखे०भागो । सव्वणेरड्य०-सव्यतिरिक्ख०-सब्वमणुस्स०-सन्वदेवेसु जाओ पयडीओ उदीरिऑति तासिमोघभंगो । वरि मणुसअपज. सध्यपयडी. जह• एयसममओ, उक्क पलिदो० असंखे०मागो । एवं जाव० । 5 ६९. भावाणुगमेण सम्वत्थ ओदइओ भावो । 5७०. अप्पाबहुवे भागाभागादो साहेदूण णेदव्वं । एवमेगेगउत्तरपयडिउदीरणा ममत्ता । तयो पयट्ठिाणउदीरणा कायवा । ७१. तदो एगेगपडिउदीरणादो अणंतरमिदाणि पडिहाणउदीरणा विहासियच्या त्ति अहियारपरामरसवक्रमेदं काऊण पयडिहाणउदीरणा णाम बुधदेअसंख्यातवें भागप्रपाण कहा है। किन्तु ऐसे मनुष्य संख्यात ही होते हैं. जो इसकी उदीरणा करते हैं। अतः इनमें इसके उदीरक जीयोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त बन सकनेसे उतना ही कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है अतः इस विशेषताको ध्यानमें रखकर इममें जिनकी उदीरणा सम्भव है, उनका काल कहा है। शेष कथन सुगम है। .६६८. अन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश | ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिध्यात्वके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंरुवातवें मागप्रमाण है। सब नारकी, सम्म तिर्यच, सब मनुष्य और सब देवोंमें जो प्रकृतियाँ उवीरित होती हैं उनका भंग पोषके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-सभ्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान सान्तर मार्गणा होनेसे उसका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर है उसे ध्यानमें रखकर ही यहाँ ओघ और आदेशसे सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकोंका अन्तरकाल कहा है। तथा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंके उदीरकोंके अन्तर काल कथनमें यही दृष्टि मुख्य है। शेप कथन सुगम है। ६६. भावानुगमको अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। ६७०. 'अल्पबहुत्वको भागाभागसे साधकर ले जाना चाहिए। इसप्रकार एकैक-उत्तरप्रकृति-उदीरणा समाप्त हुई। * तदनन्तर प्रकृतिस्थान उदीरणा करनी चाहिए । 5७१. सतः अर्थात् एकैकप्रकृतिउदीरणाके बाद इस समय प्रकृतिस्थान उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए इसप्रकार अधिकारका परामर्श करनेवाले इस वाक्यको करके प्रकृति
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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