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________________ २] उत्तरपयलिउदीरणाप अणियोगहारपरूवरणा एपडीणं वाणं पयडिहाणं । पयडि-समूहो ति मणिदं होइ । तस्स उदीरणा षयडिभणउदीरणा । पयडीणं एककालम्मि जेत्तियाणभुदीरे, संभवो तेनियमेत्तीणं समुदायो पयडिट्ठाणउदीरणा त्ति वृत्तं भवदि । तस्थ इमाणि सत्तारस अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति-समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए ति । भुजगार-पदणिक्खेवघड्ढीओ च । एत्थ समुकित्तणा दुविहा--टाणसमुक्किचणा पयडिसमुक्तित्तणा चेदि । तस्थ ताप हाणसमुकित्तणं भणामि त्ति आह ॐ तत्य ठाणसमुषितणा। ७२. तम्मि पयडिहाणउदीरणाए द्वाणसमुकित्तणा तात्र अहिकीरदे ति बुतं होइ। ॐ अस्थि एफिस्से पयडीए पवेशासो :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज । ७३. तं जहा–अएणदरवेद-संजलणाणमुदएप खवगसेढिमुवसमसेटिं वा समारूढस्स वेदपढमहिदीए प्रावलियमेत्तसेसाए वेदोदीरणा फिट्टदि ति तदो प्पहुडि एकिस्से संजलणपयडीए पवेसगो होइ । * दोराहं पयडीणं पवेसगो। ७४. सं जहा-उवसम-खवगसेठीसु अणियट्टिपढमसमयप्पटुडि जाव समयाहियावलियमेसी वेदपढमद्विदि त्ति ताव दोण्हं पयडीणमुदीरगो होदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो। स्थान सदीरणाका कथन करते हैं- प्रकृतियोंका स्थान प्रकृतिस्थान कहलाता है। प्रकृतिस्थान अर्थात् प्रकृतिसमूह यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसकी उदीरणा प्रकृतिस्थान उदीरणा है। एक कालमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव है उतनी प्रकृतियोंका समुदाय प्रकृतिस्थानलदीरणा है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसके विषयमें ये सत्रह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि । यहाँ पर समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है--स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिसमुत्कीर्तना । 'उनमेंसे सर्वप्रथम स्थानसमुत्कीर्तनाका कथन करते हैं, इसलिए कहते हैं * प्रकृतमें स्थानसमुत्कीर्तनाका अधिकार है। ६७२. उस प्रकृतिस्थानउदीरणामें सर्वप्रथम स्थानसमुत्कीर्तनाका अधिकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * एक प्रकृतिका प्रवेशक जीव है । ६७३. यथा-अन्यतर वेद और अन्यतर संचलनके उदयसे आपकणि या उपशमश्रेणि पर चढ़े हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थितिके एक प्रावलिमात्र शेष रहने पर वेवकी उदीरणा होना रुक जाता है, इसलिए वहाँसे लेकर यह जीव एक संज्वलन प्रकृतिका प्रवेशक होता है। * दो प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव है। ७४. यथा---उपशम और क्षपकश्रेणिमें अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर एक समय अधिक प्रावलिमात्र वेदकी प्रथम स्थिति शेष रहने तक दो प्रकृतियोंका उदीरक होता है, क्योंकि यहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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