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________________ जयभवाला सहिदे काय पाहुडे [ बेगो ७ गुणहाणि असंखे जगुणवड्डि० हाणि श्रवत्तः जहष्णुक्क० एस० । अवडि० जह० यस उक्क० अंतोमु० । संग भागवविध श्रावधि ५०० आदेसेण णेरड्य० जमराजेसमया । श्रसंखे० भागहाणि० जह० एस० उक्क० तेतीसागरो० देणाणि । दोन डि हारिण० ० जह० उक० एयसमश्र । अव०ि ओषं । एवं सव्वरइय० । वरि सहिदी देखणा | २२४ O एक सौ श्रेष्ठ सागर है। संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । 1 विशेषार्थ -- असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिका अद्धाक्षय या संक्लेशनयसे एक समय प्राप्त कर उसी रूपमें उसकी उदीरणा होनेपर इनके उदीरकका जघन्य काल एक समय कहा है तथा जो जीव पहले समय में श्रद्धाक्षयसे और दूसरे समय में संक्लेशतय से असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है तथा क्रमसे उसी रूप में उनकी उदीरणा करता है तब असंख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा जब कोई द्वीन्द्रिय जीव एक समय तक संक्लेशचयसे संख्यातवें भागप्रमाग स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और दूसरे समय में मरकर तथा त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पूर्वीस्थति से संख्यातवें भाग अधिक श्रीन्द्रिय के योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और क्रमसे उसी रूपमें उनकी उदीरणा करता है तब संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होने से वह प्रमाण कहा है। तथा जो एकेन्द्रिय जीव एक मोड़ा लेकर संशियों में उत्पन्न होता है उसके पहले समय में संशी के योग्य और दूसरे समय में संज्ञीके योग्य स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार इस जीवके संख्यात गुणवृद्धिके दो समय प्राप्त कर क्रमसे उसी रूप में उनकी उदीरणा करनेपर संख्यात गुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । श्रसंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पत्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक १६३ सागर स्पष्ट ही है। इसका विशेष खुलासा स्थितिविभक्ति भाग ३ पृ० १४२ से जान लेना चाहिए | शेष हानि और वृद्धियों तथा वक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है । अत्रस्थित उदीरणा कमसे कम एक समजतक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक हो यह सम्भव है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। १५००. आदेश से नारकियों में असंख्यात भागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । असंख्यात भागद्दानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितका भंग श्रोषके समान है। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । विशेषार्थ- - यहाँ अद्धाक्षय और संक्लेशक्षय से असंख्यात भागवृद्धिके दो समय प्राप्त होना सम्भव है, इसलिए इसका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। शेष कथन सुगम है । इसी प्रकार विचारकर आगे भी कालको घटित कर लेना चाहिए । I
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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