SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२५ गा० ३२] उत्तरपठिउदीरणाए. ठाणार्ण भविपरूधरणा ५०१. तिरिक्खेसु तिष्णिवडि-दोहाणि-अवट्ठिअोघं । असंखे० भागहा. जह• एयस०, उक्क. तिणिपलिदो. सादिरेयाणि | एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि संखे० भागवड्डि० जहण्णुक्क० एयस० । पंचिंतिरि०अपज-मणुसअपज० असंखे० मागवड्डि०-संखेन्गुणवढि० जह० एयस०, उक्क. बसमया। असंखे०भागहाणिअवट्टि जी दर्शयम,आज प्रामुहसागसले मामत्रड्डि-दोहाणि जपणुक्क एयस० । मणुसतिए पंबिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि असंखे गुणवड्डि-हाणि-अवत्ता जह-उक्त एयसः । ५०२. देवेसु असंखे भागहा० ज० एयसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमा० । सेमपदाणं णारयभंगो । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति | णवरि सगदिदी । आणदादि सव्वट्ठा ति । असंखे०भागहा. जह• अंतोमुहुत्तं, उकासगढिदी । संखे०भागहाणि जइण्णु० एयसः । एवं जाव। . .. ............ ---------- -- - A A A AA ५०१. तिर्थञ्चोंमें तीन वृद्धियों, दो हानियों और अवस्थितपदका भंग श्रोधके समान है। असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार पश्चेन्द्रिय निर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषना है कि इनमें संख्यात भागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । पञ्चेन्द्रिय निर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में असंख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और .. उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यात भागहानि और अवस्थितका अधन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यात भागवृद्धि और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। मनुष्यत्रिकमें परचेन्द्रिय निर्यश्चके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ५०२. देवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तनीस सागर है। शेष पदोंका भंग नारकियों के समान है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धिनकके देवों में असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यान भा गहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो अानतादिका देव वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहर्तमें अनन्तानुषन्धीकी विसंयोजना करता है उसके प्रारम्भसे लेकर उसके पूर्व असंख्यात भागहानि होती रहती है, इसलिए यहाँ इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। नौवें वेयक तकके देव वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको भी प्राप्त करते हैं, इसलिए इस अपक्षासे इनमें असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त बन जाता है। इन पानतादि सब देवोंमें विसंयोजनाके समय संख्यात भागहानि होती है तथा नौ ग्रेयेयफ तकके इन देवामें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय भी संख्यात भागहानि होती है। यतः इसका काम एक समय है, अतः इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । शेष कयन सुगम है। २६
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy