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________________ २१४ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सगट्टिदी | जोदिसियादि सहस्सारे चि एवं चैव । वरि भुज० जह० एयस०, उक्क ० बेसमधा | आणदादि सव्बट्टा त्ति मोह० अप्प० जह० उक० एवं जाव० । जणुकसहिदी । ९ ४७४ अंतराणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० भुज०अवद्वि० जह० एयस०, उक० तेवट्टिसागरोवमसदं निष्णि पलिदोषमं सादिरेयं । अप्प ० जह० एयस", उक्क तोमु० । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उबड़पोग्गल परियई । ४७५. आदेसेण खेरइय० भुज० श्रवट्ठि० जह० एस० उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं देणं । अप्प० श्रवं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगट्टिदी देखणा । तिरिक्खेसु ज० - वडि० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० श्रसंखे० भागो । अप० व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए | ज्योतिषियों से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवो मोहूनीकी स्थिति ठीकर जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । घिसें : विशेषार्थ -- कालका प्रारम्भ में ओघसे और कतिपयगति मार्गणा के भेदों की अपेक्षा ओ स्पष्टीकरण किया है उसे ध्यान में लेनेपर शेष गतिमार्गणा के भेोंमें स्पष्टीकरण करनेमें कठिनाई नहीं जाती, इसलिए अलग से स्पष्टीकरण नहीं किया है। 5 ४७४ अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रय और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्थ अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुलपरिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ – पहले अपतर स्थिति के उदीरकका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर बतला आये हैं। वहीं यहाँ सुजागर और अवस्थितस्थितिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है, इसलिए यह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ३४७५. आदेश से नारकियोंमें भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जवन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका अन्तरकाल ओघ के समान हैं । इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तिर्यञ्चोंमें भुजगार और अवस्थित स्थिति उदीरकका जवन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्य असंख्यात भागप्रमाण है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका अन्तरकाल ओघके समान महाराश HOMAST STREET
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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