SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणाएं भुजगारपरूत्रा २१५ श्रधं । पचिदियतिरिक्ततिए भुज० अबडि० जह० एयसमओ, उक्क० पुच्त्रकोटिबुधसं । पंचिदिद्यतिरिक्ख पञ्ज ० - मणुराश्रपञ्ज० सुज० अप्प० अवडि० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । G १४७६. मणुमतिए भुज० - श्रवट्टि जह० एयस०, उक० पुन्वकोडी देखणा । श्रवत्त० जह० अंतोमु०, उक० पुत्रको डिपुधत्तं । अध्य० ओ० । ६४७७. देवेसु भुज० श्रवद्वि० जह० एस० उक्क० अङ्कारससागरोवमं सादिरेयं । अप० श्रघं । एवं भवणादि जात्र सहस्सार ति । वरि सगहिदी देणा । श्राणदादि सब्बट्टा ति अप्प० णत्थि अंतरं । एवं जाय० । ४७८ णाणाजीवभंगविचयाणु० दुविहो मि० श्रघेण आदेसे० | ओघेण मोह० भुज० अ० वडि० निय० अस्थि, सिया एदे व अवतगो च, सिया एदे है। पंचेन्द्रिय तिर्थचत्रिकर्मै भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तोंमें भुजगार, अल्पत सापस्थत शिकार उरी महाराज अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – सामान्य तिर्थ बोंमें एकेन्द्रिय जीव भी सम्मिलित है और उनमें अल्पतर स्थितिकी मीराका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । उसे ख्याल में रखकर ही यहाँ सामान्य नियंचोंमें भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ६४७६. मनुष्यत्रिक में भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । अवक्तव्य स्थिति के उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका अन्तरकाल ओघके समान है। विशेषार्थ – जो मनुष्य आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त होनेपर सम्यक्त्व उपार्जित कर भवके अन्तर्मुहूर्तं पूर्वं तक सम्यग्दृष्टि रहकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है उसीके भुजगार और अवस्थितस्थितिके उरीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्व कोटि बनता है। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर मनुष्यत्रिक में यह अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम हैं । $ ४७७. देवों में भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। अल्पतर स्थितिके उदीरकका अन्तरकाल घोघके समान है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतक के देवों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें अल्पतर स्थितिके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जाना चाहिए । S४७८. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविषयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश | ओसे मोहनी की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उशेरक जीव नियमसे
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy