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________________ ३६८ जयधवलासाहिने कसायपाहुरे [ वेदगो . ६७९९. आदेसेण गैरइय० मिच्छ. असंखे०भागवटि-हाणि-अवढि० जह. एयस०, दोपडि-हाणि-अवत्त० जह• अंतोमु०, असंखे० गुणहाणि० जह० पलिदो० असंखे भागो, उक्क. सव्वेसि तेत्तीसं सागरो० देसूरणाणि | एवमणंताणु०४-हस्सरदीएं। णवरि असंखेगुणहाणि णस्थि । एवमादि-सोग। णयरि प्रसंखे० . . . ... ... .. . .. . त्पादशी प्रमाण कहा है। निरन्तर एकेन्द्रियों में रहनेका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। इस कालके मध्य मिध्यात्वकी दो वृद्धि और दो हानि स्थिति उदीरणा नहीं होती, इसलिए इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तकालप्रमाण कहा है। एक जीवकी अपेक्षा प्रथमोपशम सम्यक्त्वका जयन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मिथ्यात्व गुणस्थानका जयन्य अन्तरकाल अन्तमुहर्त है, इसलिए तो मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और उसकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरण।का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है तथा सामान्यसे सम्यक्षका उमाल किसागहमतीमालालपरिवर्तनप्रमाण है। इतने कालतक कोई जाव'प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि न हो और मिथ्यादृष्टि बना रहे यह सम्भव है, इसलिए मिथ्यात्वके उक्त दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पदोंका अन्तरकाल बन जानेसे उले मिथ्यात्वके समान जाननेकी सूचना की। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात गुणहानि स्थिति उदारणा नहीं होती, इसलिए उसका निषेध किया है। यहाँ इतना और विशेष समझना चाहिए कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका श्रवक्तव्य पद मिथ्याष्टिके होता है, इसलिए मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर यहाँ उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो.छयासठ सागरप्रमाण कहा है। जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है यह सुगम है। इसीप्रकार पाठ कषायोकी अपेक्षा जानना चाहिए मात्र इनकी उदीरणा क्रमसे पाँचवें और छठे गुणस्थानमें नहीं होती, इसलिए उन गुणस्थानोंके उत्कृष्ट कालको ध्यान में रखकर यहाँ इनकी असंख्यात भागदानि और श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। इनका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहर्त सुगम है। हास्य और रतिकी किसी जीवके सातवें नरकमें उदीरणा ही न हो यह सम्भव है, इसलिए इनकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। प्रारति और शोककी किसी जीवक बारहवें कल्पमें छह माह तक उठीरणा न हो यह भी सम्भव है. इसलिए इनकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह माह कहा है। चार संज्वलनको उदीरणा उपशमश्रेणिम अन्तमुहर्त कालतक नहीं होती, तथा भय और जुगुप्साकी निरन्तर उदीरणाका नियम नहीं । हाँ संसार अवस्थामें अधिकसे अधिक अन्तर्मुहर्त काल के बाद इनकी उदीरणा अवश्य होती है, इसलिए इनकी असंख्यात भागहानि और अयक्तव्य स्थितिजदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहतं कहा है। शेष कथन सुगम है। ६७६६. मादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, दो वृद्धि, दो हानि और प्रवक्तव्य स्थितिजदीरणाका जघन्य अन्सर अन्तमुहूर्त है और असंख्यात गुणहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर हैं । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रसिकी अपेक्षा जान लेना चाहिए। इसनी विशेषता है कि इनकी असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरण नहीं है। इसीप्रकार अरति
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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