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________________ २२२ जयचंबलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो सव्वट्ठा ति जहहाणी कस्स ? अण्णद० अधढिदि गालेमाणस्स तस्स जहहाणी । एवं जाव० । ४९४. अप्पबहुअं दुविहं-जह० उक० । उकस्से फ्यदं । दुविहो णि. ओघेण प्रादेसे० | ओषेण सन्मस्थो० उक० हाणी | बड्डी अवठ्ठाणं च विसेमा० । एवं चदुगदीसु । णकरि पंचिंतिरिक्खअपज -मगुम अपञ्ज. सवत्थो० उक्क ०बड्डी अबढाणं च । हाणी संखेगुणा । प्राणदादि सच्चट्ठा ति गथि अप्पाबहुअं । एवं जाव | ४९५. जहदायद आबिहोमुिक्याटालोरणमा मादे । ओघेण मोह. जह०वष्टि-हारिण-अवठाणाणि सारिमाणि । एवं चदुगदीसु । णवरि आणदादि सयट्ठा त्ति पत्थि अप्पाबहुअं । एवं जाव० । ४९६. वडिउदीरगे नि तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि-समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए ति । समुक्त्तिणाणु० दुविहो णि.- प्रोधेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अस्थि असंखे भागवति-हाणी संम्खे भागवड्डि-हाणी संखे गुणवडि-हाणी असंखे०गुणवड्डि-हाणी अवढि० अवत्त । आदेसेण ऐरइय० अस्थि तिण्णिवडि-हाणीअवढि० । एवं सव्यरणेर०-सव्यतिरिक्ख०-मणुसअपल०-देवा जाव सहस्सार ति । लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अधःस्थितिकी गाल ना करनेवाला । जो अन्यतर जीव है उसके अघन्य हानि होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४६४. अलबहुत्व दो प्रकारका हैं-जघन्य और उत्कृए । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और प्रदेश । ओघसे उत्कृष्ट हानि सबसे स्नोक है। उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक है। इसीप्रकार चारों गलियों में जानना चाहिए. इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तियं व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृए हानि संख्यातगुणी है। श्रानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | ४६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । प्रोपसे मोहनीयकी जघन्च वृद्धि, हानि और अवस्थान समान हैं। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४९६. वृद्धि उदीरणाका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तनगसे लेकर अल्पबहुत्य तक। समुत्कीर्तनाका निर्देश दो प्रकारका है-श्रीध और श्रादेश। ओघसे मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि हानि, संख्यात भागद्धि हानि, संख्यात गुणवृद्धि हानि, असंख्यात गुणवृद्धि हानि, अवस्थान और प्रवक्तव्यपद है। आदेशसे नाकियोंमें नीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थान पद है । इसप्रकार सब नारकी, सय तियंच, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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