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उत्तरपयहि उदीरणाए भुजगारपरूपणा
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२०६ श्रादेसेस रइय० ज० अप्प० जह० एयसमो उक० तोमु० । ० जह० एयस०, उक्क० चन्तारि समया । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिदिय- देवा भवरणादि जात्र खवमेवजा चि । पंचि ० तिरि० पञ्ज ० मशुमपञ्ज० वि० [प्रप्प० श्रघं । श्रवट्ठि० जह० एयस०, उक्क० वेसमया । मगुसतिए भुज ०म० श्रवडि० श्रोधं । श्रवश० जह० अंतोसु०, उक्क० पुञ्चकोडियुधधं । दिसादि सच्चट्टा ति भुज० प० श्रोषं । अट्टि० जह० एयसमयो, उक्क ० लिपि समया । : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ॐ पाणाजीवेहि संग विचयादिअणियांगद्दाराणि अप्पाबहुश्रवञ्जाणि यष्याणि ।
१२०७. खाणाजीवेहि भंगविचय-भागाभाग - परिमाण - खेच-पोसरण - कालंतर-भावअणदारामणि गद्दाराणामेदेण सुरेख समप्पिदामुचार गावलेख परूवणमिह
साम । तं जड़ा
६२०६. आदेश से नारकियों में भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक -समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पश्लेन्द्रिय विर्यश्वत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंस लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यव पर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकोंमें भुजगार और अल्पत प्रवेशकका अन्तर
ओके समान है । अवस्थित प्रदेशकका जघन्थ अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर समय है। मनुष्यत्रिक में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रवेशकका अन्तरकाल के मान है। प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्दर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धितकके देवोंमें भुजगार और अनतर प्रवेशकका अन्तरकाल के समान है। अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्वर तीन समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - मनुष्य त्रिकको छोड़कर अन्य सम गतियों में और उनके अवान्तर भेदों में जहाँ जो भुजगारपदका उत्कृष्ट काल बतलाया है वहीं वह अवस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तरका जानना चाहिए। मनुष्यत्रिकका कर्मभूमिमें रहनेका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। यह सम्भव है कि कोई जीव पूर्वकोटिपृथक्त्व कालके प्रारम्भमें और अन्त में
कव्यपद करे और मध्यमें उसका अन्तरकाल रद्दा आये । इसीसे इनमें अवक्तव्य प्रवेशकका पत्कुल अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण कहा है। तथा अवक्तव्य पदका जधन्य अन्तर अतिशीघ्र दो बार उपशमश्रेण पर चढ़ाकर ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम हैं ।
* अल्पबहुत्वके सिवा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय आदि अनुयोगद्वार करने चाहिए।
०७. इस सूत्र के द्वारा मुख्य भाषको प्राप्त हुए नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भाव संज्ञावाले अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा राके बसे यहाँ पर बतलाते हैं। यथा--नाना जीवोंका श्राश्रय लेकर भंगविचयासुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -- ओघ और श्रादेश । श्रोघसे भुजगार, अल्पतर और
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