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________________ गा० ६२] उत्तरपयजिउदीरणाए ठाणाणं बड्डिपरूवाणा २२७ जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । असंखं भागहा. जह• एगस०, उक. अंतोमु०। संख०भागहा. जह • अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि | पंचिं०तिरि०अपज-मणुसअपज. असंखे० भागवाड्डि-हाणि - संखे गुणवड्डि - अवट्टि जह एगस०, उक्क. अंतोमु० । संखे०भागववि-हारिण-संखे० गुणहाणि जह० उक० अंतोमु० । १५०६. मणुसतिए असंख०भागववि-संखे०गुणवष्टि-प्रवद्वि. जह० एगस०, संखे० भाग ह-संखे०गुणहाणि. जह० अंतोनु०, उक्क० सम्वेसिं पुठ्यकोडी देसूणा । असंखे०भागहा० जह० एयस०, उक्क अंतोमु० । संखे०भागहाणि० जह० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखे०गुणवड्डि-हाणि-अवत्त० जह० अंतोमु०, उक० पुच्चकोडिपुधन । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५०७. देवेसु असंखे०भागवटि-अबढि० जह० एयस०, दोवडि-संख-गुणहाणिक जह० अंतोमु०, उक० श्रद्वारस सागरो० सादिरेयाणि । असंखे० भागहा० ओघ । संखे०भागहाणि० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देमणाणि । एवं भवणादि जाब सहस्सार ति । णवरि समद्विदी देसूणा । आणदादि वगेवजा ति भागवृद्धि और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सषका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है । संख्यान भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त कोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यान गुणद्धि और अवस्थित. पदका जघन्य अन्तरकाल ॥ समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यात मागवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। ६५०६. मनुष्यत्रिक असंख्यात भागवृद्धि संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणहानि का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूत है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य है। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहालि और अवक्तव्यका जवन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। ५०७. देवा में असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय दो वृद्धियों और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओयके समान है। संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहत है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहवार कापनको दे में जानना चाहिए ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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