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________________ २१२ मार्गदर्शक अयधा श्री सविधिसागर जी महाराज कसाय पाहुडे ७ [ वेदगो णेरइय-तिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खतिय० देश जान सहस्सार ति । णवरि भवत० णस्थि । पंचि०तिरि० श्रपञ्ज० - मणुस अपज० सञ्चपदाणि कस्स १ अण्णद० | श्राणदादि सट्टा ति मोह० अप्प कस्स १ ऋणणदरस्स । एवं जाव० । 0 91 १४६८. कालाजु दुविहो शि० - श्रघेण आदेसे० । श्रोषेण मोह० ज० जह० एयस०, उक० चत्तारि समया । अप्प० जह० एयस०, उक्क• सदं तिष्णि पलिदो ० सादि० । अवडि० जह० एयस०, उक्क० अंतो० । अवत० द्विसागरोत्रम - जह० उक० एयसमझो । ९ ४६९. देसेण णेरइय० मोह० भुज० जह० एस० उक्त० तिष्णि समया । अप० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देखणाणि । अवडि० ओवं । एवं पढमाए । गवारे सागरोवमं देखणं । MAAN नहीं करना चाहिए। इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें कव्य पद नहीं है । पवेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य पर्यातकों में सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मोहनीयकी अल्पतरस्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६४६८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ध और आदेश । श्रघसे मोहनी की भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अल्पतर स्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थित स्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट कल अन्तर्मुहूर्त हैं। श्रवक्तत्र्यस्थितिके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । विशेषार्थ ---स्थितिविभक्ति पु० भाग ३ ० ६८ में भुजगार आदि तीन पदोंका स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा जैसा खुलासा किया है उसी प्रकार यहाँ उदीरणाकी अपेक्षा खुलासा कर लेना चाहिए। इतना विशेष है कि यह काल उदीरणाकी अपेक्षा जैसे घटित हो वैसे लाउके साथ कहना चाहिए। अवक्तव्य स्थितिउदीरणा उपशमश्रेणिसे गिरते समय सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानके प्रथम समय में या मरण कर देव होनेके प्रथम समय में ही होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। ४६. आदेश से नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल कुछ तीस सागर है । अवस्थितस्थितिके उदीरका काल के समान | इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ अल्पतरस्थितिके उदीरकका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर हैं । विशेषार्थ -- नरक में असंबी जीवोकी मरकर उत्पत्ति सम्भव है, इस अपेक्षा से यहाँ * पर भुजगार स्थिनिकी उदीरणा के तीन समय ही बन सकते हैं। यही कारण हैं कि नारकियों में
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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