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________________ गा० ६२] उसरपयडिउदीरणाए ठाणार्ण भुजगारपरूवणा २११ तिरिक्ख-मणुस-मणुमअपञ्ज-देवा जाव अबराइदा ति । मणुसपज मणुसिणी०सव्वट्ठदेवा० सव्वत्थोवा मोह० जह० विदिउदी०, अज० द्विदिउदीर० संखे० गुणा । एवं जाय। ४६६. भुजगारद्विदिउदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुकित्तणा जाव अप्पाबहुए नि । समुकित्तणाणु० दुविहो णि-ओघेण आदेसे० । ओघेग मोह० अधिार्मुलाप्रपाम्भवद्धि-शुक्नदिव्सदहमा एवं मणुमतिए । आदेसेण णेरइय० मोह. अस्थि भुज० अप्प० अवटि विदिउदी० । एवं सन्चणेरड्य०० सध्यतिरिक्ख-मणुमअपज०-देवा जाव सहस्सार त्ति । श्राणदादि सबवा ति मोह० अस्थि अप्पदर उदीर० । एवं जाव० | :४६७. सामित्ताणु० दुविहो णिसो-ओघेण प्रादेसे० । श्रोघेण भुज. अववि० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्वि । गरि सेढिविवक्खाए भुज० सम्माइविस्स वि लब्भइ । एदमेस्थ ण विवक्खियं । अप्प० कस्म ? अण्णद० सम्माइट्ठि० मिच्छाइदि० । अवत० कस्स ? अण्णद. जो उक्सामगो परिवदमाणगो मणुसो देवो वा पढमसमयउदीरगो। एवं मणुसतिए । णवरि देवो ति ण भाणिदब्बो । एवं सब्ध सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवासे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुयिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४६६. मुजगार स्थिति उदीरणामें वहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार हैं—समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पभहत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश ो प्रकारका है—ओघ और भादेश । मोघसे मोहनीयफ्री भुजगार, अल्पनर, अवस्थित और प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव हैं। इसीप्रकार मनुध्यत्रिकमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए । श्रानत कल्पसे लेकर सर्वार्थपिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी अल्पतर स्थितिक उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए । ४६७, स्वामित्वको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । 'प्रोसे भुजगार और अवस्थित स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्याष्टिक होती है। इतनी विशेषता है कि श्रेणिकी विवक्षामें भुजगार स्थितिको उदीरणा सम्यग्दृष्टिके भी प्राप्त होती है। किन्तु इसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। अल्पतर स्थितिकी उदारणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिके होती है । अवक्तव्य स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? जो गिरनेवाला अन्यतर उपशामक मनुष्य या ( मरण होनेपर) देव प्रथम समयमें मोहनीयकी स्थितिका उदीरक है. उसके मोहनीयकी अवक्तव्य स्थितिकी उदारणा होती है। इसीप्रकार मनुप्यत्रिकी कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें देव पदका पालाप
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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