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________________ १२७ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाण समुत्तिणा पर्यादिशिद्द सो च १२७८. उपसागपात्रोग्गपवेसद्वारा परूवणाणंतर मेत्तो खबगादो पर्वसङ्काणसमुक्कित्तणा श्रणुमरिंगच्या कदि तत्थ पसद्वाणाणि होंति ति जाणावणहूं- तं जहा । * दंसणमोहणीए विदे एक्कावीस पगडीओ पविसंति । २७९. जहवि एसो श्रत्थो पुब्वमसंजदपाश्रग्गद्वाणपरूवणावसरे परुविदो तो वि ण पुणरुत्तदोसो, पुच्छुत्तस्सेवत्थस्सावादं काढूण एत्तो अव्वत्थषरूवणं कस्सामोति जाणाचण मेदस्स सुत्तस्सावयारादो | * अफसाएसु खविदेसु तेरा अफिसमा (सुविधिसागर जी महाराज २८० पु०त गिवीसपचेसगेण खत्रगसेढिमारूढे अरियद्विगुणद्वाणं पविसिकसासु खविदेसु तत्तो पहुडि जाव अंतरकरणं ण समप्पइ ताच चदुसंजलग्ण-रणवणोकसायसण्णिदाओ तेरस पयडीओ तस्स खवगस्स उदयावलियं पविसंति त्ति समुक्किचिदं होड़ | अंतरे को दो पयडीओ पविसंति | $ २८१. तं जहा – अंतरं करेमाणो पुरिसवेद- कोहसंजलणाणमंतोमुत्तमेति पढमट्टिदि ठवेदि । सेयकसाय णोकसायाणमुदयाव लियवज्जं सव्वमंतरमागाएदि । एवमंतरं करेमाणेण जाधे अंतरं समाणिदं ताघे पुरिसवेद को संजलणाणमंतो मुहुत्तमेती २०८. उपशामकके योग्य प्रवेशस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके बाद भागे क्षपकके श्राश्रयसं वहाँ कितने प्रवेशस्थान होते हैं इसका ज्ञान करानेके लिए प्रवेशस्थान समुत्कीर्तनाका विचार करना चाहिए । * यथा * दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर इक्कीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । २७६. यद्यपि यह अर्थ पहले असंयत प्रायोग्य स्थानोंके कथन के समय कह आये हैं तो भी पुनरुक दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्तः श्रथका ही अनुवाद करके आगे अपूर्व अर्थका कथन करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रका अवतार हुआ है। * आठ कषायों का क्षय होनेपर तेरह प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। ८०. क्षपकभे पर चढ़े हुए पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके द्वारा अनिवृत्तिगुणस्थान में प्रवेश करके आठ कपायोंका क्षय कर देने पर वहाँसे लेकर जब तक अन्तरकरण समाप्त नहीं होना है तब तक चार संज्वलन और नौ नोकपाय संज्ञावाली तेरह प्रकृतियाँ उस क्षपकके उदद्यावलिमें प्रवेश करती है यह इस सूत्र द्वारा कहा गया है। * अन्तर करनेपर दो प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। ६२८१. यथा -- अन्तर करनेवाला क्षपक जीव पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनकी अन्तमुहूर्तमात्र प्रथम स्थिति स्थापित करता है। शेष कपायों और नोकषायोंकी उदद्यावलिको छोड़कर शेष सब स्थिति अन्तरको प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार अन्तरको करनेवाला जब अन्तरको
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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