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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जयधवलासहिदे कसायपाहुसे [बेदगो व सम्मामि०-सासणसम्भाइट्ठीसु वि अट्टण्हं जहण्णंतरं जाणिय जोजेयव्वं । संपहि णवण्हं मिच्छाइद्विम्हि एवं चेव भय-दुगुंलावलंबणेण जहाणंतरमेदमणुगंतव्यं । ॐ उसण पुव्वका दै F१२१. तं जहा-एको मणुस्सो वेदगसम्माइट्टी गम्भादिअदुवस्साणमुवरि अट्ठण्हमादि कादुण रणवपवेसगो होदूरणंतरिदो। तदो विसेहि पूरिय संजमं घेत्तण पुन्यकोडि सव्वमंतरिय कमेण कालं कादृण देवेसुक्वण्रणो तस्स अंतोमुहुत्ते बोलीणे भय-दुर्गुलाणमण्णदरमुदीरमाणस्स लद्धमंतरं होइ । एवमंतोमुत्तम्भहियअहवस्सेहि ऊणिया पुचकोडी अट्ठण्हं पवेउक्कस्संतर होइ । संपहि एवण्हं पवेसगस्स भण्णमाणे अट्ठावीससंतकम्मियमिच्याइद्विस्स पुव्यकोडाउअसम्मुच्छिमतिरिक्खेसुप्पन्जिय छहिं पञ्जनीहिं पञ्जत्तयदभात्रेण विस्संतस्स तत्थेव रणवण्हमादि कादृणंतरिदस्स सब्यविसुद्धीए पडिवण्णसम्मत्तसहिदसंजमासंजमस्स देसूणपुरकोडिमंतरिय भवावसाणे देवेसुप्पण्णस्स अंतोमुहुत्ते गदे लमंतरं होइ ति वत्तव्यं । 8 दसराहं पयडीणं पवेगस्स अंतर केवचिरकालादो होदि ? प्रवेशक होकर और उसका अन्तर करके अनन्तर समयमें जुगुप्साके उदयसे अन्तरको प्राप्त करता है. ऐसा कहना चाहिए। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें भी श्राट प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर जानकर उसकी योजना करनी चाहिए। तथा नौ प्रकृतियोंके प्रवेशकका मिथ्याहष्टि गुरग्रस्थानमें इसीप्रकार भय और जुगुप्साके अवलम्बनसे यह जघन्य अन्तर जान लेना चाहिए। * उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। ६ १२१. यथा-एक मनुष्य बेदकसम्यग्दृष्टि जीवने गर्भसे लेकर पाठ वर्षके बाद आठ प्रकृतियाँदी उदीरणाका प्रारम्भ करके अनन्तर नौ प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर उसका अन्तर किया। अनन्तर विशुद्धिको पूर्ण करके और संयमको ग्रहण कर पूरे पूर्वकोटि कालका अन्तर देकर कमसे यह मरा और देव हो गया। फिर उसके अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर भय और जुगुप्सा इनमेंसे किसी एककी उदीरणा करने पर आठ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तर प्राप्त हो जाता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम एक पूर्वकोदिप्रमाण पाठ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब नौ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर कहने पर जो अट्ठाईस प्रऋतियोंकी सत्तावाला मिथ्या दृष्टि जीव पूर्वकोटिकी श्रायुवाले सम्मूछिम तिर्यश्चों में उत्पन्न हुश्रा और जिसने छह पर्याप्तयोंसे पर्याप्त होकर लसरूपसे विनाम किया। पुनः वहीं पर नौ प्रकृतियोंके प्रवेशका प्रारम्भ करके अन्तर किया । फिर सर्वविशुद्धिके साथ सम्यक्त्वसहित संयमासंयमको प्राप्त कर कुछ कम एक पूर्वकोटिकालका अन्तर देकर भवके अन्तमें देवोंमें उत्पन्न हुआ। उसके वहाँ पर अन्तमुहृत काल जाने पर उक्त पदका अन्तर प्राप्त हो जाता है ऐसा यहाँ पर कहना चाहिए। * दस प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ?
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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