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________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी । एण्ािंगद्दारपरूवा यह मणिदविहाणेण पयदजहएतराणुगमो कायव्यो । अधवा खीणोवसंतदसणऔरणीयस्स असंजदसम्माइद्विस्स सत्तण्डं जहएहतर भय-दुगुंछाप्रो अस्सिऊरण पुब्बुत्तेणेव साणेणाणुगंतच्वं । 0 उपरसेण उवढपोग्गलपरियहूं । ११८. कुदो ? अद्धपोग्गलपरियादिसमए पढमसम्मत्तगहरणपुच्वं तिण्हमेदेसि समापं जहासंभवमप्पणो विसए उकस्संतराविरोहेणादि कादूर्णतरिय मिच्छ गंतूण चूणमद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिदृण थोबाबसेसे संसारे पुणो वि सम्मत्तपडिलंभेण हिवाएतब्भावम्मि तदुवलंभादो । अट्ठण्हं णवण्हं पयडीणं पवेसर्गतरं केवचिरं कालादो होदि । ६११९. सुगम जहपणेण एयसमझो। ६ १२०. तं कधं ? असंजदो वेदगसम्माइटी अगुण्इं पवेसगो भयकालो एगसमयों अस्थि त्ति दुगुंलोदएण परिणदो तत्थेगसमयमंतरिय पुणो वि तदणंतरसमए भयवोच्छेदेणट्टाहं पसगो जाहो । लद्धमंतरं । अधया एसो चेव भयवोच्छेदेणेगसमयं सतपसगो होदणंतरिय से काले दुगुंछोदएण लद्भूमंतरं करेदि ति वरव्यं । एवं संयत जीवके जिसप्रकार छष्ट्र प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर कहा है. उसीप्रकार प्रकृत पदके जश्न्य अन्तरका अनुगम करना चाहिए। अथवा जिसने दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय या उपशम किया है ऐसे असंयतसम्यम्दृष्टि जीवके सात प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर भय मौर जुगुप्साका आश्रयकर पूर्वोक्त विधिसे ही जानना चाहिए । * उस्कृष्ट अन्तर उपापुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । १९८. क्योंकि अर्धपुद्गलपरिवर्तनत्रमाण कालके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणपूर्वक इन तीन स्थानोंका यथासम्भव अपने विषयमें उत्कृष्ट अन्तरके अविरोधरूपसे प्रारम्भ करके और अन्तर करके अनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालतक परिवर्तन करके संसारके स्तोक शेष रहने पर पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्ति के साथ उन स्थानों के प्राप्त होने पर उनका अन्तर उपलब्ध होता है। * आठ और नौ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तर कितना है। ११६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है। ६५२०. वह कैसे कोई एक आठ प्रकृतियों का प्रवेशक असंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव भयकी उदीरणामें एक समय काल बचा है कि वह जुगुप्साके उद्यसे परिणत होगया और वहाँ एक समय तक उसका अन्तर करके फिरसे तदन्तर समयमें भयकी उदयव्युच्छित्ति करके पाठ प्रकृतियांका प्रवेशक हो गया । इसप्रकार पाठ प्रकृतियोंके प्रवेशकका एक समय अन्तर प्राप्त हुआ। अथवा यह जीव भयकी उदयव्युच्छिचि करके एक समय तक सात प्रकृतियोंका
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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