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________________ जथधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ केण त्रि गएण तेसि पि संजदपाओग्गत्तदंसणादो च । एवमसंजदपाओग्गाणं हाणाणमेत्येव बोच्छेदं कादूण संपहि संजदपाओग्गाणमेत्तो परूवणं कुणमाणो पइएणावकमुत्तरं भणइ-- मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी म्हा १ एत्तो जवसामगपाओग्गाणि ताणि भणिस्सामो। २५९. एत्तो उवरि संजदपाओग्गाणं हाणाणं परूषणे कीरमाणे तत्थ ताब उवसामगपाओग्गाणि जाणि पत्रसट्टाणाणि ताणि मणिस्सामो ति पइण्णावकमेदं, उवसामग-खयगपाओग्गत्तण दुविह्ना विद्वत्ताणं नेसि जुगवं योत्तुमसचीए कमावलंबणादो। उवसामणाको परिवदंतेण तिविहीं लोहो पोकल्डिवो । तत्थ लोभसंजलणमुदए दिएणं, दुधिहो लोहो उदयावलियबाहिरे णिक्वित्तो। साधे एका पयडी पषिसदि। २६०. उवसमसेढीग सच्चोवसमं कादृण तत्तो परिवदमाणएण सुहमसांपराइयपढमसमयम्मि जाधे तिविहो लोहो विदियविदीदो ओकड्डिय जहारिहं णिसित्तो ताधे एका पयडी पविसदि, तत्थ लोभसंजलणस्स एकस्सेव उदयावलियम्भंतरपवेसदसणादो। से काले तिपिण पयडीओ पविसंति । २६१. पुन्चमुदयावलियवाहिरे णिसित्तस्स दुविहस्स लोहस्स तदणंतरसमए असंयतोंके योग्य हैं ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन स्थानोंकी सूत्रमें विवक्षा नहीं की हैं और किसी नयकी अपेक्षा वे भी संयतोंके योग्य देखे जाते हैं। इसप्रकार असंयतोंके योग्य स्थानोंका यहीं पर विच्छेद करके अब संयतोंके योग्य प्रवेशस्थानोंका आगे व्याख्यान करते हुए श्रागेका प्रतिज्ञावाक्य कहते हैं * आगे उपशामकोंके योग्य जो प्रवेशस्थान हैं उनका कथन करेंगे। १२५६. इससे पागे संयतोंके योग्य स्थानोंका कथन करते हुए उसमें सर्व प्रथम उपशामकोंके योग्य जो प्रयेशस्थान हैं उनका कथन करेंगे इसप्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है, क्योंकि उपशामक और क्ष पोंके योग्यरूपसे दो भागोंमें बटे हुए उन प्रवेशस्थानोंकी एक साथ कहनेकी शक्ति न होनेसे यहाँ पर क्रमका अवलम्बन लिया है। __* उपशामनासे गिरते हुए जीवने तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण किया । उनमेंसे लोभसंज्वलनको उदयमें दिया और दो प्रकारके लोभका उदयावलिके बाहर निक्षेप किया। तय एक प्रकृति प्रवेश करती है। २६०. उपशमश्रेणी में सोशम करके वहांसे गिरनेवाले जीवचे सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें जब तीन प्रकारके लोभका द्विसीय स्थितिमैसे अपकर्षणकर यथायोग्य निक्षेप किया तष एक प्रकृति प्रवेश करती है, क्योंकि वहां पर एक लोभसंज्वलनका ही उदयायलिमें प्रवेश देखा जाता है। * तदनन्तर तीन प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। २६१. क्योंकि पूर्व समयमें उन्यावलिके बाहर निक्षिप्त हुए दो प्रकारके लोभका तद. ..
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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