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________________ २६९ गा० ६२] उत्तरपयलिहिदिउदीरणाप सरिणयासो असंखे० भागेण्णाश्रो । भय-दुगुंछ. सिया उदी०। जदि उदी० णियमा उक्कस्सा । एवं पुरिसवेद । एवं हस्स० । णवरि अरदि-सोग० णस्थि । इथिवे-पुरिसवे. सिया उदी० । जदि उदीर० उक्क० अणुक्क ० वा। उक्क० अणु• अंतोमुहुत्तणमादि कादण जात्र अंतोकोडाकोडि सि । गस० सिया उदी० । जदि उदी. उक० अणुकस्सा वा । उक्कस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि काद्ग जाव त्रीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखे भागेणूणाम्रो । रदि० णियमा उक्कस्सा । एवं रदीए । १५७४. णस० उक्क हिदिमुदीरेंतो० मिच्छ. णिय. उदीर०, उक्क० अणुक्क० चा । उक्क० अणुक्क० समयणमादि कादण जाव पलिदो० असंखे० भागेणूणा । सोलसक० सिया उदीर० । जदि उदीरे० उक० अणुक० का। उक्कस्सादो अणुकस्सा समयणमादि कादण जाव आवलियुणा सि । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा. जहा इस्थिवेदेण णीदं तहा णेदव्यं । एवमरदीए । णवरि हस्स-दी० गस्थि । तिणि वेद० सागरप्रमाण तककी अनुपस्थितिक्षाचार्य की होमाईलाग्यौहानुषप्साका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार पुरुपवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसीप्रकार हास्यकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीवको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अति और शोर की उदीरणा नहीं होती। वह स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित उदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुस्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर अन्तः कोड़ाफोड़ी सागर तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। नपुसकवेदका कदाचित् उदीरक होता है। यदि दीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम बीस कोडाकोड़ी सागर तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। रतिको नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार रतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६५७४. नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक होता है जो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका भसंख्यातवाँ भाग कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। सोलह कषायका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुस्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर एक प्रावलि कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यहाँ हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग जिस प्रकार स्त्रीवेदके साथ ले गये उस प्रकार ले जाना चाहिए । इसीप्रकार अरतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको विवक्षिप्त कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके हास्य और रतिकी उदीरणा नहीं है। इसके तीन वेदोका भंग जिस प्रकार हास्य और रतिके साथ ले गये
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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