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________________ ०६२ ] उत्तरपट्टि विषदीरणाए सामितं २३५ १५२६. सामित्तं दुहिं- जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो णि०- - श्रघेण आदेसेण य । श्रोषेण मिच्छत्त-सोलसक० उक० डिदिउदी० कस्स १ अणद० मार्ग सिद्धि हि []त्रिक पावलियाद्वीदस्स । रावणोक० उक० डिदिउदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइडि० उक० डिदि पडि च्छिदूगा लियादीदस्स | सम्म० उक० डिदिउदी० कस्स० १ अण्णद० जो पुण्यवेदगो मिच्छत्त० उक० हिदिं बंधिऊण अंतोमु० दिवादका सम्मतं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्मास्मि । सम्मामि० करसडिदिउदी० कस्स ? अण्णद० स एव वेदयसम्माइट्ठी अंतमुत्तम चिऊ पढमसमयसम्ममाइको जादो, तस्स उक्क हिदिउदी० । एवं सच्चरणेग्ड्य०तिरिक्खपंचि०तिरिकखतिय सणुसतिय देवा जाव सहस्सार ति । वर अप्पप्पणी पडीश्रो जाणिदवाओ । ね , ० - मणुस अपज० १५२७. पंचि०तिरि० अपज ०मिच्छ० सोलसक० सत्तणोक० उक० डिदिउदी० कस्स १ अगद० मगुस्सस्स वा मणुसिणीए वा पंचि०तिरिक्ख Q - स्थितिकी उदरणा करता है, इसलिए ये तीनों स्थितिउदीरणा सादि और अध्रुव की है । किन्तु जघन्य स्थितिउदीरणा जघन्य स्थितिउदीरणा के पूर्व भी होती है और बादमें भी मिथ्यात्व गुणस्थानके प्राप्त होनेपर होती है, इसलिए इसे सादि आदि चारों प्रकारका कहा है । शेष प्रकृतियोंकी चारों प्रकारकी स्थितिउदीरणा अपने-अपने स्वामित्व के अनुसार कदाचित् ही होती है, इसलिए इन्हें सादि और अध्रुव कहा है। गतिमार्गणा के सब भेद सादि और ध्रुव हैं, इसलिए इनमें स्थितिउदीरणाके उत्कृष्टादि चारों भेदोंको सादि और अध्रुव कहा है। इसीप्रकार अन्य मार्गणाश्रमें विचार कर घटित कर लेना चाहिए । ६५२६. स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट | उत्कृटका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व और सोलह कपायको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जिस अन्यतर मिध्यादृष्टिको उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर एक आवलि काल व्यतीत हुआ है उसके होती है। नौ नोकवायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जिस मिध्यादृष्टिको कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकपायोंमें संक्रमण करनेके बाद एक आवलि काल गया है उसके होती है। सम्यक्त्वक उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? पूर्व में वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कर चुके हुए जिस मिध्यादृष्टि जीवने मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर और स्थितिघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त में वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उस द्वितीय समग्रवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है । सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? अभ्यंतर बड़ी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त रहकर सम्यग्मिध्यादृष्टि हो गया, प्रथम समयवर्ती उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती हैं । इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्ज, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर सहचार कल्पतकके देवमिं जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियां जानना चाहिए । १५२७ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकाम मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होनी है ? अन्यतर जो मनुष्य
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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