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________________ गा० ६२ ] उत्तरपथविजोरणाए अणि श्रोगहार परूवणा ३७ 0 मय- दुगुंछा० - पुरिसत्रे० उदीर० संखेज दिभा०, घणुदीर० संखेजा भागा । एवं भवण० - बारवें ० - जोदिसि ० सोहम्मीसा० । सुणकुमारादि सहस्सारा ति एवं चैव । चरि इत्थवे ० णत्थि । पुरिसके० णत्थि भागा० | आणदादि णत्र मेवज्जा त्तिमिच्द्र०तेरसकसाय० अरदि० सोग-भय- दुर्गुन्दा० उदीर० संखे० भागो । भगुदी ० संखेजा मागा। सम्म० -हस्स-र६० तिरहं लोभाणमुदीरगा संखेजा भागा । अगुदी० संखे०भागो । पुरिसवे० णत्थि भागाभागो । सम्मामि श्रघं । अदिसादि श्रवराजिदा ति सम्म० उदीर० असंखेजा भागा | अखुदीर० असंखे० भागो । तिन्हं लोभारणं हस्स -रदि० उदीर० संखेज | भागा । अणुदीर० संखे० भागो । णवकसा० - अरदि-सोगभय-दुर्गुछा० उदीर० संखे ० भागो । अणुदीर० संखेजा भागा । पुरिसने० णत्थि भागा० । एवं सवट्टे । णवरि संखे कायव्यं । एवं जाव० । - ६०. परिमाणा० दुविहो ०ि ओ० श्रादेसे० । श्रघेण मिच्द्र०जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। बारह कषाय, रति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान देवोंमें जानना चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्री के नागाभाग नहीं है। आननसे लेकर नौक तक देवी मिध्यात्व, तेरह कपाय, रति, शोक, भय और जुगुप्साके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, हास्य, रति और तीन लोभके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओके समान है। अनु दिसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें सम्यक्त्वके उदीरक जीव श्रसंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। तीन लोभ, हास्य और रविके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदारक जीव संख्यात भागप्रमाण हैं। नौ कषाय अरति शोक म और जुगुप्सा उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं. अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं हैं। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्या के स्थान में संख्यात करना चाहिए। इसीप्रकार नाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - श्रव और आदेश से जहाँ जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उसे ध्यान में रखकर भागाभागका विचार किया है। इतना अवश्य है कि जहाँ सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी उदीरणा न होकर मात्र एक प्रकृति की उदीरणा होती है वहाँ उसको अपेक्षा भागाभाग सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है । इतना अवश्य है कि अनुदिशादिकमें मात्र सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं और वहाँ मात्र सम्यक्त्व प्रकृितिको उदीरणा सम्भव है फिर भी वहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिकी अपेक्षा भागाभाग बन जाता है, क्योंकि वहाँ पर बहुत से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव उसकी उदीरणा करनेवाले होते हैं और अल्प उपशम सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उसकी उदीरणा नहीं करते । शेष कथन सुगम है । ६०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघ और आदेश । श्रघसे 1
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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