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________________ उत्तरपयरिणाए बड्डिपरूपणा १०६ 0 ? वाकालवा . महाद्यषेण आदेसेण । ओघेण संखे० भागवष्टिहाणि वट्टि ० के ० १ सव्त्रद्धा | संखे० गुणवढि जह० एयस० उक्क० भावलि० श्रसंखे० भागो । संखे० गुणहाणि अवत्त० जह० एस० उक्क० संखेखा समया । आदेसेण सव्वणेरड्य०-पंचिं० तिरि० प० - मरगुसअप ० - सव्वदेवाति भुज०भंगो । दिक्खिसु सव्वपाणमोत्रं । पंचि०तिरिक्खतिए अट्टि० सब्बद्धा | सेसपदा० जह० एमओ, उक० आवलि० असंखे० भागो । मणुसेसु संखे० भागवष्टि हाणि जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि० असंखे० भागो | वडि० सम्बद्धा । संखे० गुणवड्डि- हाणिअवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखे० समया । एवं मरणुसपञ्ज० - मरखुसिणी० । वरि मा० ६२ ] मार्गदर्शक , विशेषार्थ – श्रवसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थितपदके उदीरकों का जब क्षेत्र ही सर्व लोकप्रमाण बतलाया है तब उन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण होगा इसमें सन्देह नहीं । रहे शेष पद सो एक तो उनका सम्बन्ध गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके साथ श्रा | दूसरे ये पद यथासम्भव जो मिध्यादृष्टि जीव संयमासंग्रम या संयमको प्राप्त होते हैं उनके होते हैं या जो उपशमश्रे रिस् पर चढ़ते या उतरते हैं या उपशमश्रेणिमें मरकर देव होते हैं उनके होते हैं । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकक असंख्यातवें भागप्रमारण होता है अतः इन पकी अपेक्षा वह उत्तप्रमाण कहा है। सामान्य तिर्यक्वोंमें यह स्पर्शन अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए वह ओके समान कहा है। सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में भुजगार उदीरणा के समान कहने का कारण यह है कि इनमें सम्भव तीन पदका स्पर्शन भुजगार उरणा में जैसा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका कहा है वैसा यहाँ क्रमसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन जाता है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिकका वर्तमान स्पर्शन लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण हैं जो संख्यात भागवृद्धि संख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा इनमें घटित हो जाता है, इसलिए इनमें इन पदोंकी अपेक्षा तो उक्त स्पर्शन कहा है और शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। २४०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघ संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थितपदके उदीरकों का काल सर्वदा है । संख्यातगुणवृद्धिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात में भागप्रमाण है । संख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पदके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। आदेश से सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में भुजगार उदीरणाके समान भंग है । तिर्यों में सब पदोंका भंग ओके समान है। पकत्वेन्द्रिय निर्ययत्रिक में अवस्थितपदके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदोंके उदीरकका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्य । तर्षे भागप्रमाण है। मनुष्यों में संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट फाल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितपदके उदीरकोंका काल सर्वदा है। संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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