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________________ $ → गा० ६२ ] उत्तरपट्टिदिदीरणाए भुजगारमणिश्चगारं ३४३ सगपोसणं | सणकुमारादि जाव सहस्सार त्ति सव्वपयडीणं सव्वपदा लोग० असंखे ०भागो अचोस० । श्राणदादि अच्चुदा ति सव्वथडीखं सव्वपदा लोग० श्रसंखं० भागो, छोदस० । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । 1 $ ७५१. णाणाजीवेहिं कालाणु० दुविहो णि० - श्रोषेण श्रादेसेण य । श्रोषेण मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० सम्यदर्श सव्यद्वार सुछि कुंजय हालख० जह० एयस०, उक्क० श्रावलि० श्रसंखे ० भागो । इत्थवेद- पुरिसवेद० श्र०श्रबडि० सव्वद्धा । सेसपदार्थ जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । सम्म० अ० सव्वद्धा । सेसपदा जह० एस० उक० आवलि० असंखे० सम्मामि० अप० जह० अंतीमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवत० मिच्छत्तभंगो | एवं तिरिक्खा | कल्प में जानना चाहिए | इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार arrass देवों में सब प्रकृतियोंके सब पदवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागमिसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतकरूपसे लेकर अयुत कल्पतक के देवों में सब प्रकृतियों के सब पदवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाणु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर क्षेत्रके समान स्पर्शन है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गगातक जानना चाहिए। विशेषार्थ — देवोंके एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित उदीरणा सम्भव नहीं है और न ही इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यकी उदय उदीरण सम्भव है, इसलिए स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उक्त दो पदवालों का तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और श्रसनालीके चौदह भागमिंसे कुछ कम आठ भागप्रमाा कहा है। शेष कथन सुगम है। १७५१. नाना जीनोंका आलम्बन लेकर कालानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओ और आदेश | ओघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायके सब पदवालों का काल सर्वदा हैं। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व और नपुंसकवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । स्वेद और पुरुषवेदी अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदके वीरोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके उदीरफोंका काल सर्वदा है। शेष पदके उदीरकोंका अधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिध्यात्व की अल्पतर स्थितिके उदीरकोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल संख्यातवें भागप्रमाण है । अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका भंग मिध्यात्वके समान है। I इसी प्रकार सामान्य तिर्यखोंमें जानना चाहिए | विशेषार्थ – यहाँ जिन प्रकृतियोंके जिन पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है उन्हीं का उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सम्यग्मिध्यात्व
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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