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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुहे [वेदगो १७२५. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ०-अणताणु०४-हस्स-रदि. भुज-अप्प०भवडि• जह० एयस०, अवत्त० जह. अंतोमु०, उक्क० अन्वेसि तेत्तीसं सागरो. . काल के बाद संक्लेशकी पूर्ति करके भुजगार और अवस्थित स्थितिका बन्ध कर उनकी उदीरणा की । इसप्रकार मिथ्यात्वकी इन दोनों स्थितिउदीरणाओंका तीन पल्य अधिक एकसौ बेसठ सागरप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर काल प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है । जो जीव बीच में सम्यग्मिथ्यात्व. को प्राप्त कर कुछ कम दो छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वमें । भाकर मिथ्यात्व की अल्पतर स्थितिउदीरणा करता है उसके मिथ्यात्वकी अस्पतर स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। किसी जीवके सम्यक्त्वकी कमसे कम अन्तर्मुहर्त के अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके अन्तरसे उदीररणा होती है, इसलिए इसकी अवक्तव्य स्थितिधदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन. प्रमाण कहा है। कोई जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम दो छयासठ सागर कालके अन्तरसे पुन: मिथ्या दृष्टि हो सकता है, इसलिए अनन्तानुषन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर कहा है। क्रमसे देशसंयम और सकल संयमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकाटि है, इसलिए पाठ कषायोंकी श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और अल्पतर व अवक्तव्य स्थितिअदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि बन जानेसे तत्प्रमाण कहा है। उपशमश्रेणिमें । चार संज्वलन, भय, जुगुप्साकी उदोरणा अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे होती है, इसलिए इनकी + मल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सातवें नरकमें तथा उसमें उत्पन्न होनेके पूर्व और वहाँसे निकलने के बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक हास्य और रतिको उदारणा न हो यह सम्भव है, इसलिए हास्य और रतिकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तेतीस सागर कहा है। सहस्रार कल्रमें परति और शोककी छह माहतक उदीरणा न हो यह सम्भव है, इसलिए इनकी अल्पतर स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्दर फाल छह महीना कहा है। यह जीव अनन्त काल अर्थात असंख्यात पुदलपरिवर्तन फालतक नपुसकयेदी बना रहे यह सम्भव है, इसलिए स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगारादि चारों स्थितिउदीरणाओंका उत्कष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। यह जीव सौ सागर पृथक्त्व कालतक पुनः नपुसकवेदी न हो यह सम्भव है, इसलिए नपुसकवेदकी भुजगार, अल्पदर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । कोई जीव नपुंसकवेवकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा करके अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कालतक नपुंसकवेदी रहा, पुनः मरणपूर्वक अन्य वेदी होकर अन्तर्मुहूर्त काल पाद मरणपूर्वक पुनः नपुंसकवेदी हो गया उसके स्त्रीवेदके समान नपुसकवेदकी प्रवक्तव्य स्थिविदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर काल बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ६७२४. भादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, अनन्तानुसन्धीचतुष्क, हास्य और रतिकी मुजगार, मल्पतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य भन्सर एक समय है, प्रवक्तव्य स्थितिउछोरणाका जघन्य अन्तर मन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतोस सागर है।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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