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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिहिदिउनीरणाप णाणाजीओहि कालो ३०३ एयस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो । अणुक० सन्त्रद्धा । १६७६. मणुसतिए सम्म० उ० द्विदिउदी० जह० एगम०, उक० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सम्मामि० । णवरि अणुक्क० जह० उक्क० अंतोमु० । सेसपय • उक्क० द्विदिउदी० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क सचद्धा । मार्गदर्शक : 9 मागसमपथाउकद्विदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि. असंख० भागो। अणुक० जह० एयस०, उक० पलिदो० असंखे भागो। णवरि मिच्छ०-णस. अणुक० जह० खुदाभवगहरणं समयूणं, उक्क पलिदो. असंखे०भागो। कि पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्यापकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीपकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिके जदीरकोंका काल सर्वदा है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंका प्रमाण यद्यपि असंख्यात है, फिर भी इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा मात्र एक समयप्रमाण बनती है, इसलिए अटत सन्तानकी अपेक्षा नाना जीवोंके उक्त कालका योग आवलिके असंख्यात भागप्रमाग ही बनता है। यही कारण है कि उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यात भागप्रमाण कहा है। शेप कथन सुगम है। ६६७६. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सर्पदा है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्य प्रकृतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सभ्यरिसध्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका काल सर्वधा है। विशेषार्थ- मनुष्यन्त्रिकका प्रमाण संख्यात है इस तथ्यको ध्यागमें रखकर यहाँ सम्यक्त्र प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट काल वहा है । शेष कथन मुगम है। ७६७७. मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है | अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। तनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय कम तुल्ल कभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुष्य अपर्याप्तकोंका प्रमाण यद्यपि असंख्यात है, फिर भी इनमें सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल भी एक समयमात्र है। यदि अत्रुटत् सन्तान रूपसे ऐसे जीव इनमें उत्पन्न हो तो भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही वे उत्पन्न होंगे। यही कारण है कि इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल भावलिके असंख्सातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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