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[ वेदगो .
श्री सविधिसागर जी
जयधवलासहिदे कसायपाहुड़े लोग० असंखे०भागो छचोइस० । उपरि खेत्तभंगो । एवं जावः ।
६७४. गाणाजीवेहि कालो दुविहो-जह० उक्क । उक्कसे ययदं । दुविहो णि०–ोघेण आदेसेण य । श्रोघेण छब्बीसं पयडीणं उक० जह• एगस कु. पलिदो० असंखे मागो। अणुक० सम्वर्द्ध।सम्मा-सम्मामि उक. जह. एगसमो, उक्क० आवलि. असंखे भागो । अणुक्क० सम्वद्धा | णवरि सम्मामि० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो।
१६७५, सन्बणेरइय०-सव्यतिरिक्ख-देवा सहस्सारे ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति नासिमोघं । णवरि पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जः सवपय० उक० जह० भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर क्षेत्रके समान भंग है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए।
६६७४. नाना जीवोंकी अपेक्षा काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-श्रोध और आदेश । मोबसे छब्बीस प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकांका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समरा है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमागा है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यफे असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ- पहले एक जीवी अपेक्षा काल बतला आये हैं। उसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकाका जघन्य काल बतलाया है। वह यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा भी बन जाता है, अतः उसका अलगसे खुलासा नहीं किया। अब रही उत्कृष्ट कालकी बात सो यदि नाना जीय अत्रुटन् सन्तानरूपसे उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा करें तो छब्बीस प्रकृतियोंकी पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालता और सम्यक्त्व-सम्यग्मिध्वात्यकी श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक ही उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा बनती है। यही कारण है कि यहाँ पर छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका उत्कृष्ठ काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ठ स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट पावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है। अब रहा इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंके कालका विचार मी सत्ताईस प्रकृतियोंकी निरन्तर उदीरणा सर्वदा सम्भव है, इसलिए सो इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का काल सर्वदा कहा है। अब रहा सम्यग्मिथ्याघकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकों के काल का विचार सो नाना जीवों की अपेक्षा सभ्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका ही उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। यही कारण है कि यहाँ सम्यग्मिथ्यात्त्रकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है।
६६७५. सघ नारकी, सब तिर्यच और सामान्य देवासे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवाम जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, उनका काल श्रोध के समान है। इतनी विशेषता है.