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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ३३९, अंतराणु० दुविही णि..-भोघेण आदेसेण य । श्रोषेण २८ २७ २६ २४ २१ णस्थि अंतरं । २५ जह० एगस०, उक्क सत्त रादिदियाणि । २२ पवे. जह० एयसमो, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। २३ १३ २ १ जह० एगस०, उक. छमासा । २० १९१२ १० ९७६ ४ ३ जह० एगसमो , उक्क० वासपुधत्तं । 5 ३४०. आदेसेग्ग णेरइय० २८ २७ २६ २४ २१ णस्थि अंतरं । २५ २२ श्रोघं । एवं पढमाए तिरिक्ख-पंचिंतिरि०२-देवा सोहम्मादि णवगेवजा ति । समय और उप्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत कहा है । मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें सब पदोंका जघन्य काल एक साय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। नौअनुदिश आदि में जिस कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिको २१ प्रकृनियोंके प्रवेशक होने में एक समय काल शेष है ऐस एक जीव तथा नाना जीय भी उत्पन्न हो सकते हैं और कृतकृत्यवेदक सम्यग्दष्टि जीव लगातार भी उत्पन्न होते है जो अत्रुटित सन्तान रूपसे अन्तमुर्त काल तक बाईस प्रकृतियों के प्रवेशक बने रहते हैं । यही कारण है कि इनमें इस पदके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । ३३६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे २८, २१, २५ सावरिमगरमचेरापोवाकान्तरकाल नहीं है । २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंको जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रान है। २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौशीस दिन-रात है। २३, १३, २ और १ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। २०, १६, १२, १८, ६, ७, ६,४ और ३ प्रकृतियोंके प्रवेशकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-२६, २७, २६, २१ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव निरन्तर उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है । २५ प्रकृतियों के प्रवेशक अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अचियोजक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी होते हैं और इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात हानेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बियोजक जो सपशन सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व में जाता है वह प्रथम समयमें २२ प्रकृतियोंका प्रयेशक होता है, यतः ऐसे जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात होता है, इसलिए यहाँ पर इस पदके प्रवेशकोंका उक्त अन्सरकाल कहा है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, इसलिए यहां पर २३, १३, २ और १ प्रकृत्तियों के प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना काहा है, क्योंकि २३ प्रकृतिक प्रवेशस्थान दर्शनमो: नीयकी क्षपणा के समय ही होता है और शेष तीन स्थान चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के समय नियमसे पाये जाते हैं । शेप प्रवेशस्थान उपशमश्रेणिमें होते हैं, इसलिए उसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको ध्यान में रख कर उन प्रवेशस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। ३४०. श्रादेशसे नारकियों में २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका अन्तरकाल नहीं है। २५ और २ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका अन्तरकाल ओधके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यन, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वद्विक, सामान्य देव
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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